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काव्य में रहस्यवाद

निबन्ध मे हमने किसी वर्णन में आई हुई वस्तुओ का मन में दो प्रकार का ग्रहण बताया था—विंवग्रहण और अर्थग्रहण मात्र। वर्पा और हेमंत के वर्णन में वाल्मीकि ने विंवग्रहण कराने का प्रयत्न किया है। उन्होने वस्तुओ के अलग-अलग नाम नहीं गिनाए हैं; उनके आकार, वर्ण आदि का पूरा व्योरा देते हुए आस-पास की वस्तुओ के साथ उनका संश्लिष्ट दृश्य सामने रखा है। इसी संश्लिष्ट रूपयोजना का नाम चित्रण है। कवि इस प्रकार के चित्रण में तभी प्रवृत्त होता है जब वह बाह्य प्रकृति को आलंवन-रूप में ग्रहण करता है। उद्दीपन-रूप मे जो वस्तु-विधान होता है उसमें कुछ इनी-गिनी वस्तुओ के उल्लेख मात्र से काम चल जाता है।

वन, पर्वत, नदी, नाले, पशु-पक्षी, वृक्ष, लता, मैदान, कछार ये सब हमारे पुराने सहचर हैं और हमारे हृदय के प्रसार के लिए अभी तो बने हुए हैं; आगे की नहीं कह सकते। इनके प्रति युग-युगादि का संचित प्रेम जो मनुष्य की दीर्घवश परंपरा के बीच वासना-रूप में निहित चला आ रहा है उसकी अनुभूति के उद्बोधन में ही मनुष्य की रागात्मिका प्रकृति का पूर्ण परिष्कार और मनुष्य के कल्याण-मार्ग का अबाध प्रसार दिखाई पड़ता है। इन्हे सामने पाकर इनसे यही कहने को जी करता है—

एहो! वन, वंजर, कछार, हरे भरे खेत!
विटप, विहंग! सुनो, अपनी सुनावें हम।
छूटे तुम, तो भी चाह चित्त से न छूटी यह,
वसने तुम्हारे बीच फिर कभी आवें हम।