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काव्य में रहस्यवाद

आज-कल कवि के 'सन्देश' (message) का फैशन बहुत हो रहा है। हमारे आदि कवि का—आदि से अभिप्राय प्रथम कवि से है जिसने काव्य के पूर्ण स्वरूप की प्रतिष्ठा की—सन्देश है कि सब भूतो तक, सपूर्ण चराचर तक, अपने हृदय को फैला कर जगत् मे भावरूप में रम जाओ हृदय की स्वाभाविक प्रवृत्ति के द्वारा विश्व के साथ एकता का अनुभव करो। करुण अमर्ष की जो वाणी उनके मुख से पहले-पहल निकली उसमे यही सन्देश भरा था।समस्त चराचर मे एक सामान्य हृदय की अनुभूति का जैसा तीव्र और पूर्ण उन्मेष करुणा में होता है वैसा किसी और भाव में नहीं। इसी से आदि कवि की वाणी द्वारा पहले पहल उसी की व्यंजना हुई। उस वाणी में काव्य के प्रकृत स्वरूप का भी पूरा संकेत था। मनुष्य की अन्त प्रकृति के भीतर भावो का परस्पर जैसा जटिल सम्बन्ध है करुणा और क्रोध का वैसा ही जटिल सम्बन्ध उस वाणी में था। आलवन-भेद से इन दो विरोधी भावों का कैसा सुन्दर सामंजस्य उस ह्रदय से निकले हुए सीधे-सादे वाक्य में था!

अब उनके सन्देश का कुछ और विवरण लीजिए। रामायण में—विशेषत. वर्षा और हेमंत के वर्णन में जिस संश्लिष्ट व्योरे

के साथ उन्होंने प्रकृति के नाना रूपो का सूक्ष्म निरीक्षण किया है उससे उन रूपो के साथ उनके हृदय का पूरा मेल पाया जाता है। विना अनुराग के ऐसे सूक्ष्म व्योरो पर घष्टि न जा ही सकती है, न रम ही सकती है। "काव्य मे प्राकृतिक दृश्य"[१] नामक


  1. दे° 'माधुरी'—ज्येष्ठ और आषाढ़ १९८०