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काव्य में रहस्यवाद

हुआ। मुनि एकवारगी करुणा से व्याकुल, फिर रोप से उद्विग्न हो उठे। उनके मुँह से यह वाग्धारा छूट पड़ी—

मा निपाद प्रतिष्टान्त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काम-मोहितम्॥

इस करुण क्रोध की वाणी मे लोकरक्षा और लोकरंजन की साधना-विधि और काव्य के अनेक-भावात्मक स्वरूप की घोपणा थी। मुनि ने तमसा-तट की उस घटना मे सम्पूर्ण लोकव्यापार का नित्य स्वरूप देखा। इससे वे हताश नहीं हुए। ध्यान करने पर उसी के भीतर उन्हें मंगलमयी ज्योति का दर्शन हुआ जिसमें शक्ति, शील और सौन्दर्य्य तीनो विभूतियो का दिव्य समन्वय था। इसी समन्वय को लेकर उनकी वेगवती वाग्धारा चली। यह समन्वय जटिल है—इस प्रकार का है कि चाहे किसी एक को अलग करके लें उसके साथ दूसरी दो विभूतियाँ भी इधर-उधर लगी रहेगी। जैसे, यदि किसी ओर ध्वंस या नाश की ओर प्रवृत्त शक्ति को ले तो और सब ओर से वह शील-साधन और सौन्दर्य-विकास करती दिखाई देगी। यदि क्षमा अनुग्रह मे प्रवृत्त शील को लें तो अपार शक्ति उस क्षमा और अनुग्रह के सौन्दर्य को बढ़ाती दिखाई पड़ेगी। यदि सौन्दर्य को लें तो वह केवल व्याधि के रूप का प्रेम उभारता न दिखाई पड़ेगा, बल्कि शक्ति-शील के योग मे भक्ति, आशा और उत्साह का संचार करेगा।

न तो अन्तःप्रकृति में एक ही प्रकार के भावो या वृत्तियों का विधान है और न वाह्य प्रकृति मे एकही प्रकार के रूपो या व्यापारों