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काव्य में रहस्यवाद


बहुतों में, अनुकरण-वश सही, लाक्षणिकता की ओर अधिक प्रवृत्ति देख वड़ी प्रसन्नता होती है।

लाक्षणिकता के अधिक विधान की आवश्यकता किसी शाखा- विशेष के भीतर ही नहीं; समूचे हिन्दी-काव्य-क्षेत्र के भीतर है। पर यह विधान खूब समझ-बूझकर होना चाहिए। न तो अपनी भाषा की प्रकृति की इतनी अवहेलना होनी चाहिए कि अँगरेज़ी के लाक्षणि क प्रयोग शब्द-प्रति-शब्द रख लिए जायँ और न उर्दूवालो की तरह मुहावरे से फिसलने का इतना डर छाया रहना चाहिए कि बिल्कुल उड़ने से कुछ पहले की अवस्था सूचित करने के लिए "खबर फड़फड़ा रही है" लिखते हाथ रुक जाय। सामंजस्य-बुद्धि से काम लेते हुए अग्रसर होना होगा। मुहावरे लाक्षणिक प्रयोग ही हैं, पर वँधे हुए। उनसे किसी भाषा की लाक्षणिक प्रवृत्ति के स्वरूप का पता चलता है। अतः उनका सूत्र पकड़े हुए लक्षण इधर-उधर अच्छी तरह वढ़ सकती है। उदाहरण के लिए 'लालसा जगना' लीजिए। इसके इशारे पर "लालसा सोती है" हम बेधड़क कह सकते हैं। पर बहुत आगे बढ़कर "लालसा का ऑख मलना, करवट बदलना या अँगड़ाइयाँ लेना" "मुँह का कमल को लात मारना' हो जायगा। लाक्षणिक मूर्तिमत्ता गुड़ियो का खेल न होने पाए। हमारा मतलब यह नहीं कि मुहावरों के रास्ते के भीतर ही लक्षणा अपने हाथ पैर फैलाए। तात्पर्य इतना ही है कि अपनी भाषा की प्रकृति परखकर और सुरुचि का ध्यान रख- कर चला जाय।