बाहर बढ़ते चले जाते हैं। उनमें सामंजस्य-बुद्धि का अभाव होता
है। अतः इस 'अभिव्यंजना-वाद' से हम केवल इतना ही तथ्य ग्रहण
कर सकते हैं कि हमारी काव्य-भाषा में व्यंजना-प्रणाली के और
अधिक प्रसार और चित्ताकर्षक विकास की बहुत आवश्यकता है।
हमारी पुरानी कविता में व्यंजना-प्रणाली के प्रसार और
चमत्कार के लिए अलंकारों का ही विधान अधिकतर होता था।
पर अलंकारों के अधिक प्रयोग से कविता कितनी भाराक्रान्त
और कहीं-कहीं कितनी भद्दी हो जाती है, इसके उदाहरण केशव-
दासजी की रचनाओ मे बिना ढूॅढ़े मिलेगे। अलंकार बहुत जगह
लेते हैं और बहुत दूर तक भावना को एक ढाँचे के भीतर बन्द
किए रहते हैं। अतः उनका संयत प्रयोग वहीं होना चाहिए जहाँ
विचार या भावना के पूर्ण प्रसार या भाव की यथेष्ट व्यंजना के
लिए व्यास-विधान अपेक्षित हो। अब इस समय हिन्दी-काव्य-
भाषा मे मूर्तिमत्ता की समास-शक्ति का, लक्षणा-शक्ति का, अधिक
विकास अपेक्षित है। काव्य में अधिकतर सादृश्य या साधर्म्य-
मूलक अलंकारो का व्यवहार होता है। पर बहुत-से स्थलो पर
उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि के बँधे हुए लम्बे-चौड़े ढाँचो की
अपेक्षा लक्षणा से बहुत अधिक रमणीयता और वाग्वैचित्र्य का
सम्पादन हो सकता है। लाक्षणिकता के सम्यक् और स्वाभाविक
विकास द्वारा भाषा भावक्षेत्र और विचार-क्षेत्र दोनो मे बहुत दूर
तक, बहुत ऊँचाई तक और बहुत गहराई तक प्रकाश फेक
सकती है। छायावाद समझ कर लिखी हुई कविताओं में से