क्रन्दन, पीड़न, ध्वंस का सहन जगत् की साधना या तप है जो वह भगवान् की मंगल कला के दर्शन के लिए किया करता है। जीवन प्रयत्न-रूप है, अतः मंगल भी साध्य रहता है, सिद्ध नही। जो कविता मंगल को सिद्ध रूप में देखने के लिए किसी अज्ञात लोक की ओर ही इशारा किया करती है, वह आलस्य, अकर्मण्यता और नैराश्य की वाणी है। वह जगत् योर जीवन के संघर्ष से कल्पना को भगाकर केवल मनोमोदक वाँधने और खयाली पुलाव पकाने में लगाती है । ऐसी कायर कल्पना ही से सच्चे काव्य का काम नहीं चल सकता जो जगत् और जीवन से सौन्दर्य और मंगल की कुछ सामग्री ले भागे और अलग एक कोने मे इकट्ठी करके उछला-कूदा करे।
ब्रह्म की व्यक्त सत्ता सतत क्रियमाण है। अभिव्यक्ति के क्षेत्र में स्थिर ( Static) सौन्दर्य और स्थिर मंगल कहीं नहीं; गत्यात्मक ( Dynamic ) सौन्दर्य्य और गत्यात्मक मंगल ही है,पर सौन्दर्य की गति भी नित्य और अनन्त है और मंगल ही भी । गति की यही नित्यता जगत् की नित्यता है। सौन्दर्य और मंगल वास्तव मे पर्याय हैं । कला-पक्ष से देखने में जो सौन्दर्य है, वही धर्मपक्ष से देखने से मंगल है। जिस सामान्य काव्यभूमि पर प्राप्त होकर हमारे भाव एक साथ ही सुन्दर और मंगलमय हो जाते हैं उसकी व्याख्या पहले हो चुकी है। कवि मंगल का नाम न लेकर सौन्दर्य्य ही का नाम लेता है और धार्मिक सौन्दर्य की चर्चा वचाकर मंगल ही का जिक्र किया करता है। टाल्सटाय इस