शब्द के लिए उन्होंने 'वन्तुवाद' शब्द बनाया है वह दार्शनिक
भाषा में 'बाह्यार्थवाद' कहलाता है।
यहाँ पर हम यह बहुत स्पष्ट कह देना चाहते हैं कि हिन्दी- काव्यक्षेत्र में हम रहस्यवाद की भी एक शाखा चलने के विरोधी कभी नहीं हैं। हमारा कहना केवल यही है कि वह वाद के रूप में न चले; स्वाभाविक रहस्यभावना का आश्रय लेकर चले। छाया- वाद का रूप-रंग बना कर आजकल जो बहुत-सी कविताएँ निकली हैं उनमें कुछ वो बहुत ही सुन्दर, स्वाभाविक और सच्ची रहस्यभावना लेकर चली हैं; कुछ वादग्रस्त और कृत्रिम हैं और अधिकांश कुछ भी नहीं हैं। शुद्ध काव्यदृष्टि का प्रचार हो जाने पर पूर्ण आशा है कि कूड़े करकट के ढेर में से सच्ची स्वाभाविक रहस्यभावना अपना मार्ग अवश्य निकाल लेगी और हिन्दी-काव्य- क्षेत्र की यह शाखा भी अपनी एक स्वतंत्र भारतीय विभूति का प्रकाश करेगी। अनुकरण-युग का अन्त होगा, इसका हमें पक्का भरोसा है।
'अभिव्यंजना-वाद' किस प्रसार व्यंजन-प्रणाली की वक्रता
और विलक्षणता पर ही जोर देता है, यह हम देख चुके। यह
हमारे यहाँ का पुराना 'वक्रोक्तिवाद' ही है, यह भी हम निरूपित
कर आए। उसके कारण शब्दाडंवर की कितनी अधिकता हुई है,
यह बात भी हम देख रहे हैं। यह कई वार हम सूचित कर चुके
हैं कि योरप के समीक्षा-क्षेत्र में जितने 'वाद' निकलते हैं सब
एकांगदर्शी होते हैं; किसी एक ही दिशा में आँख मूँदकर हद के