पदविन्यास में जो सरलता और प्रांजलता है वह भी हमारी है; जो वक्रता और विचित्रता है वह भी हमारी है। जिन मधुर 'प्रतीको' का व्यवहार हुआ है वे भी हमारे हृदय के सगे हैं।
अब तो कदाचित् इस बात के विशेष विवरण, की आवश्य-
कता न होगी कि जो 'छायावाद' नाम प्रचलित है वह वेदान्त के पुराने
प्रतिबिम्बवाद का है। यह प्रतिबिम्बवाद सूफ़ियों के यहाँ से होता
हुआ योरप में गया जहाँ कुछ दिनो पीछे 'प्रतीकवाद' से संश्लिष्ट
होकर धीरे-धीरे बंगसाहित्य के एक कोने में आ निकला और
नवीनता की धारणा उत्पन्न करने के लिए 'छायावाद' कहा जाने
लगा। यह काव्यगत रहस्यवाद के लिए गृहीत दार्शनिक सिद्धान्त
का द्योतक शब्द है। इसके इतिहास की ओर ध्यान न देने के
कारण अनेक प्रकार की मनमानी व्याख्याएँ हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं
मे समय-समय पर निकला करती हैं जिनमें कहीं रहस्यवाद और
छायावाद का कल्पित भेद समझाया जाता है; कहीं 'छायावाद'
ही के अर्थ में एक और 'बिंबवाद' खड़ा करके दोनों का
'वस्तुवाद' (?) के साथ विरोध कुछ शब्दाडंबर के साथ दिखाया
जाता है। ऐसे लोगो को शब्दों का प्रयोग करते समय शास्त्र-पक्ष
का कुछ पता रखना या कम से-कम लगा लेना चाहिए। उन्हें
समझना चाहिए कि 'बिंब', 'छाया' का बिल्कुल उलटा है और
उसी अर्थ में आता है जिस अर्थ मे उन्होने 'वस्तु' शब्द का
प्रयोग किया है। जो मूल वस्तु प्रतिबिंब या छाया फेंकती है
शास्त्रीय भाषा में वही बिंब कहलाती है। जिस Realism