उपेंद्रवज्रा इत्यादि वर्ण-वृत्तों में नाद-सौन्दर्य्य की पराकाष्ठा है।
पर उनका बंधन बहुत कड़ा होता है। अतः भावधारा या
विचारधारा पूरी स्वच्छंदता के साथ कुछ दूर तक उनमे नहीं चल
सकती। इसी से हिन्दी में मात्रिक छंदो का ही अधिक प्रचार
रहा है। वर्ण-वृत्तो मे सवैये इस लिए ग्रहण किए गए कि उनमे
लय के हिसाब से गुरु-लघु का बंधन बहुत कुछ शिथिल हो
जाता है।
जो कविता में उतने ही नाद-सौन्दर्य्य की ज़रूरत समझते हैं जितना केवल लय (Rythm) के द्वारा सिद्ध हो जाता है उनसे हमें कुछ कहना नहीं है। हम अधिक की ज़रूरत समझते हैं और शायद बहुत-से लोग ऐसा ही समझते हो। रही यह बात कि छंद के बंधन से विचार के पैर बँध जाते हैं और कल्पना के पर सिमट जाते हैं। इसकी जाँच के लिए कवियो की रचना का इतना बड़ा मैदान खुला हुआ है। हिन्दुस्तानी कवियों की बात छोड़िए -- क्योंकि विलायत की अंधाधुंध नकल से घबराकर ही यह सारा निबन्ध लिखा गया है -- अँगरेज़ी के कवियों को लीजिए। क्या वर्ड्सवर्थ और शेली की ऊँची-से-ऊँची कविताएँ छंद और तुक से बँधी नहीं हैं? क्या औरों की ऊँची-से-ऊँची छन्दोमुक्त कविता उनके टक्कर मे रखी जा सकती है?
अब तक जो कुछ लिखा गया उससे यह स्पष्ट हो गया होगा
कि हिन्दी में आ निकला हुआ यह 'छायावाद' कितनी विलायती
चीज़ों का मुरब्बा है। जैसा हम पहले दिखा आए हैं 'रहस्यवाद'