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काव्य में रहस्यवाद


प्रतिबिम्बवाद को अपनाया। इस प्रतिबिम्बवाद को लेकर सिद्धान्त-पक्ष में उन्होंने उस 'कल्पनावाद' की उद्भावना की जिसका वर्णन हम कर आए हैं और जिसे काव्य-पक्ष में लेकर ब्लेक आदि विलायती रहस्यवादियों ने साहित्य मे एक विलक्षण आडम्बर खड़ा किया। पर सूफियो ने अपने उस 'कल्पना-वाद' को केवल ध्यान के लिए साधना या सिद्धान्त-पक्ष में ही रखा; काव्यक्षेत्र में नहीं घसीटा। काव्यक्षेत्र में उन्होंने प्रतिबिम्बवाद के साथ 'अभिव्यक्तिवाद' का मेल किया जिससे उनकी कविता का रंग वैसा ही स्वाभाविक और हृदयग्राही रहा जैसा और कविता का।

सूफी कवि इस बाहर फैले हुए परदे के बीच-बीच में ही -- छाया के बीच-बीच में ही -- अपने प्रियतम की झलक पाते रहे; अपने भीतर की उलटी-सीधी, अव्यवस्थित कल्पना में नही। बाहरी जगत् के जिस रूप में उन्हें उसके सौन्दर्य, हास, औदार्य्य, प्रेम, क्रीड़ा इत्यादि की छटा का आभास मिला उसे वे पीछे कल्पना में धारण करके भी रस-मग्न होते रहे। सारांश यह कि सबके सामने फैले हुए बाह्य जगत् के रूपो और व्यापारों में कुछ सच्चा आभास या संकेत पाकर, तब वे उसके अनुरूप भाव- व्यंजना करते थे। इससे एक सामान्य भावभूमि पर प्राप्त होकर श्रोता या पाठक का हृदय भी उनके भाव को अपना लेता था। इसके विपरीता विलायती रहस्यवादी या उनके अनुयायी बाह्य जगत् की स्वच्छ और सच्ची अभिव्यक्ति से, जो मनुष्य-मात्र के