अनुभूति है, उसका प्रत्यक्ष वा असली अनुभूति से कोई सम्बन्ध ही नहीं, या तो कोई खयाल ही नहीं, या गलत है। काव्यानुभूति I Aesthetic mode or state) एक निराली ही अनुभूति है इस मत के कारण योरपीय समीक्षा-क्षेत्र में बहुत सा अर्थशून्य वाग्विम्तार बहुत दिनों से चला आ रहा है। इस मत की असारता रिचर्ड्स(I.A. Richards)ने अपने "काव्य-समीक्षा-सिद्धान्त" (Prin-ciples of Literary Criticism) में अच्छी तरह दिखाई है।
अपने को भूलकर, अपनी शरीर-यात्रा का मार्ग छोड़कर, जब मनुष्य किसी व्यक्ति या वस्तु के सौन्दर्य पर प्रेम-मुग्ध होता है , किसी ऐसे के दुख पर जिसके साथ अपना कोई खास सम्बन्ध नहीं करुणा से व्याकुल होता है , दूसरे लोगो पर सामा- न्यतः घोर अत्याचार करनेवाले पर क्रोध से तिलमिलाता है , ऐसी वस्तु से घृणा का अनुभव करता है जिससे सबकी रुचि को लेश पहुँचता है,ऐसी बात का भय करता है जिससे दूसरो को कष्ट या हानि पहुंचने की सम्भावना होती है, ऐसे कठिन और भयंकर कर्म के प्रति उत्साह से पूर्ण होता है जिसकी मिद्धि सबको वांछित होती है तथा ऐसी बात पर हँसता या आश्चर्य करता है जिसे देख मुनकर सबको हँसी याती या आश्चर्य होता है तब उसके हृदय को सामान्य भावभूमि पर और उसकी अनुभूति को काव्या- नुभूति के भीतर समझना चाहिए। इसलिए यह धारण कि शब्द, रंग या पत्यर के द्वारा जो अनुभूति उत्पन्न की जाती है केवल वही काव्यानुभूति हो सकती है, ठीक नहीं है।