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काव्य में रहस्यवाद


सीधा लगाव है, लिया गया। इस रस-विधान में जगत् या प्रकृति ब्रह्म का रूप ही रही है; छाया, प्रतिविंव, आवरण आदि नहीं। जो मनोहर रूपयोजना सामने लाई जाती है, हृदय के भाव ठीक उसी के प्रति होते हैं , उसके भीतर (Immanent) या उसके बाहर (Transcendent) रहनेवाले किसी हाऊ के प्रति नही।

यह पहले दिखाया जा चुका है कि यह योजना प्रकृति के रूपो को ले कर ही होती है। कल्पना भी बाह्य जगत् के रूपों या उनके संवेदनो की छाया है। सीधे उन रूपो से या रूपात्मक संवेदनों से हम प्रेम कर चुके रहते हैं तभी उनकी छाया अर्थात् में हमारा हृदय रमता है। जगत् का यह व्यक्त प्रसार ही भाव के संचरण का वास्तविक क्षेत्र है। इससे अलग मनुष्य- कल्पना की कोई वास्तव सत्ता नहीं, वह असत् है। क्षणिक विज्ञानवादी ह्यूम (Hume) का यह सिद्धान्त बहुत पक्का है कि इन्द्रियज ज्ञान (Impressions) ही सब प्रकार के ज्ञान के मूल हैं और वे ही विचार विचार होते हैं जो इनके आधार पर संघटित होते हैं। भाव के क्षेत्र मे भी व्यक्त प्रसार की अनुभूति ही मूल है। यदि 'कल्पना' शब्द बहुत प्रिय हो तो यो कह सकते हैं कि यह नित्य और अनन्त गत्यात्मक दृश्य जगत् ही ब्रह्म की कल्पना है। मनुष्य की कल्पना तो इसी की एक विकृत और परिमित छाया है। अनन्त का जितना अंश पृथ्वी से लेकर आकाश तक बिना दूरबीन के दृष्टि दौड़ाने में ही हमारे सामने आ जाता है उसका शतांश भी एक बार में कल्पना के भीतर नही