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काव्य में रहस्यवाद


कथन में दो बाते हैं -- "सब भूतों के भीतर मैं हूँ" और "अव्यक्त रूप में हूँ"। ये दोनों बातें मनुष्य-हृदय के संचरण-क्षेत्र से दूर की थीं। जिज्ञासापूर्ण नर ने पूछा, "जिसके भीतर आप हैं, जो नाना रूपो में हमें आकर्षित किया करता है, वह क्या है?" उत्तर मिला "वह भी मैं ही हूँ -- मैं छिपा हुआ भी हूँ और तुम्हारे सामने भी हूँ। मेरे दोनों रूप शाश्वत और अनन्त हैं"। नर ने कहा "बस, इसी सामनेवाले रूप की नित्यता और अनन्तता ज़रा मुझे दिखा दीजिए"। नारायण ने दिक् काल का परदा हटा कर अपना व्यक्त, गोचर और अव्यय विश्वरूप सामने कर दिया।

सारा वाह्य जगत् भगवान् का व्यक्त स्वरूप है। समष्टि रूप में वह नित्य है, अत 'सत्' है, अत्यन्त रंजनकारी है, अत 'आनन्द' है। अतः इस 'सदानन्द स्वरूप' का वह प्रत्यक्ष अंश जो मनुष्य को रक्षा में (बना रहने देने अर्थात् सत् को चरितार्थ करने में) और रंजन में (सुख और मंगल का विधान करने में) अपार शक्ति के साथ प्रवृत्त दिखाई पड़ा, वही उपासना के लिए, हृदय लगाने के लिए, लिया गया। जिसमें शक्ति, शील और सौन्दर्य्य तीनों का योग चरमावस्था में दिखाई पड़ा वही प्राचीन भारतीय भक्तिरस का आलम्बन हुआ। कर्मक्षेत्र में प्रतिष्ठित यह आलम्बन मनुष्य के अनेक-भावात्मक हृदय के साथ पूरा-पूरा बैठ गया; कोई कोना छूटने न पाया। "मैं ऋतुओं में वसन्त हूँ, शस्त्रधारियों में राम हूँ और यादवों में कृष्ण हूँ" का संकेत यही