पाते थे। प्रकृति के मूर्त पदार्थों के प्रति अपने गहरे-से-गहरे भाव
की व्यंजना पूरे धार्मिक या भक्त ऐसे ही शब्दों में कर सकते
थे -- "उस परमात्मा की कारीगरी भी क्या ही अद्भुत है; कैसे-
कैसे रूप, कैसे-कैसे रंग उसने सजाए हैं!" अपने भावों को सीधे
अर्पित करते हुए उन्हे नर-पूजा, वस्तु-पूजा या मूर्ति-पूजा के पाप
का ध्यान होता था। पर उक्त प्रकार की व्यंजना से ही मनुष्य की
भावतुष्टि कहाँ तक हो सकती थी? यहूदियों और पुराने ईसाइयो
में धर्मसम्बन्धी वातो को मूर्त रूप में प्रकट करने के लिए साध्य-
वसान रूपकों (Allegories) का प्रचार था। पर साध्यवसान
रूपक एक भद्दा विधान है। इसी से अद्वैतवाद, सर्ववाद (Panthe
ism), प्रतिबिंववाद आदि कई वादो का मिला-जुला सहारा लेकर
उन्होंने अपने हृदय की स्वाभाविक वृत्तियों के लिए गोचर भूमि
तैयार की। उन्होंने प्रकृति के नाना रूपों के साथ परमात्मा के
कर्तृत्व-सम्बन्ध के स्थान पर थोड़े-बहुत स्वरूप-सम्बन्ध की स्थापना
की -- पर किस प्रकार डरते-डरते यह पूर्व विवरण से स्पष्ट है।
फारस की सूफी शायरी मे बाह्य जगत् की सुन्दर वस्तुओ का
प्रतीक 'वुत' (देवमूर्ति) रहा। वुत-परस्ती के इलज़ाम के डर से
भक्त कवि लोग अपने प्रेम को सीधे वुतों (प्रकृति की सुन्दर
वस्तुओं) के प्रति न बताकर "वुतों के परदे मे छिपे हुए खुदा"
के प्रति बताया करते थे। फ़ारस में वाह्य प्रकृति के सौन्दर्य प्रसार
की ओर दृष्टि बहुत परिमित रही। इससे वहाँ प्रतीक इने-गिने
रहे। सुन्दर मनुष्य का ही प्रतीक लेकर वे अधिकतर चले। पर