की कल्पना मन मे आई कि ईश्वर का दर्शन हुआ। इस प्रकार
रहस्यवादी कवि के लिए वियोगपक्ष -- जिसकी इतनी दूरारूढ़
व्यंजना हुआ करती है -- रह ही न गया।
अब संयोग-पक्ष मे व्यंजित भावो की सचाई की परीक्षा कीजिए। यह हम बार-बार कह चुके हैं कि कल्पना मे आए हुए रूप प्रकृति ही के हैं, बाहर ही के हैं और गोचर हैं। कल्पना की सारी रूप-सामग्री बाह्य जगत् की ही होती है। कल्पना उसकी केवल तरह-तरह की योजना किया करती है। प्रकृति के बाहरी रूप-रंग आदि हमें मुग्ध कर चुके रहते है तभी उनकी काल्पनिक योजना में हमारी वृत्ति रमती है। यदि कोई मनुष्य जन्म से ही एक घर में बन्द रखा जाय, तो उसकी कल्पना मे दीवारों और खम्भों के सिवा और कुछ नहीं आ सकता। इससे सिद्ध है कि हमारे भाव वास्तव मे बाह्य प्रकृति के गोचर रूपो ही के प्रति होते हैं, इसी लिए कल्पना मे उनकी छाया भी हमें भाव-मग्न करती है। हमारे हृदय का सीधा लगाव बाह्य प्रकृति के गोचर रूपो से ही होता है।
इस दृष्टि से यदि देखा जाय तो रहस्यवादी जो कुछ सुन्दर,
रमणीय और भव्य रूप-योजना करेगा वह वास्तव में या तो बाह्य
प्रकृति के प्रेम द्वारा प्रेरित होगी अथवा प्रेम द्वारा प्रेरित ही न
होगी। पर उसमें इस बात को स्वीकार करने का साहस ही नहीं
होता। इससे पाठक के मन मे वह यह झूठी प्रतीति उत्पन्न करना
चाहेगा कि उसके भाव इन छायात्मक रूपो के प्रति बिल्कुल नहीं
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