जब तक हम किसी 'वाद' का सहारा न लें तब तक यही कहेगे कि कल्पना में आए हुए रूप ही प्रकृति के नाना रूपो के प्रतिबिंब हैं; प्रकृति के रूप कल्पना के प्रतिबिंब नहीं। इस 'कल्पना-वाद' का कोई प्रभास न तो वेदांत के प्रतिबिंब-वाद में है, न कांट से लेकर हेगल तक जर्मन दार्शनिकों के 'प्रत्ययवाद' (Idealism) में। 'प्रत्ययवाद' इस दृश्य गोचर जगत को ही प्रत्यय या भावना (Ideal) कहता है। यह 'कल्पनावाद' वास्तव में सूफियो के यहाँ से गया है, यह हम आगे चलकर दिखाएँगे।
सूफियों के कल्पनावाद की गंध पाकर ब्लेक ने, कुछ-कुछ बर्कले (Berkely) के इशारे पर, 'परम आत्मा' के समान दृश्य जगत् से परे 'परम कल्पना' का प्रतिपादन किया और मनुष्य-कल्पना को उस 'परम कल्पना' का अंग या अशलब्धि माना, प्रकृति के नाना रूप जिसकी छाया हैं। कल्पना को उसने इलहाम बनाया और कवियो को खासे पैगंवर। इस प्रकार उसने काव्य के परम पुनीत क्षेत्र में पापंड का रास्ता-सा खोल दिया।
साहित्य-पक्ष भी कुछ देखना चाहिए। रचना के समय कवि के हृदय में कल्पना के रूप में आलंबन आदि रहते या आते ही हैं। जब कि यही काल्पनिक रूप ही वस्तुओं की सार-सत्ता है, ब्रह्म का रूप है, तब अभिलाप की जगह कहाँ रही? अभिलाप तो साक्षात्कार की इच्छा है। वह साक्षात्कार हो ही जाता है। प्रकृति के क्षेत्र में जिसकी हम छाया मात्र देखते हैं उसे हम कल्पना में मूल-रूप मे देख ही लेते हैं। भली-बुरी किसी प्रकार