पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/९५

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दूसरा छाया साहित्य-काव्यशास्त्र साहित्य शब्द प्रायः काव्य का वाचक है। शब्दकल्पद्रम ने तो 'मनुष्यकृत श्लोकमय ग्रन्थ-विशेष' को ही साहित्य अर्थात् काव्य कहा है। भर्तृहरि का पद्याध भी साहित्य शब्द से काव्य का ही बोध कराता है। जब तक व्यापकार्थक साहित्य शब्द के साथ किसी भेदक शब्द का योग नहीं होता, जैसे कि अँगरेजी-साहित्य, संस्कृत-साहित्य, ऐतिहासिक साहित्य आदि, तब तक साहित्य शब्द से काव्यात्मक साहित्य का ही सामान्यतः बोध होता है। ऐसा कोई शब्द नहीं, अर्थ नहीं, विद्या नहीं, शास्त्र नहीं, कला नहीं; जो किसी न किसी प्रकार इस काव्यात्मक साहित्य का अंग न हो।' अतः इस सर्वग्राही, सर्वव्यापक, सर्वक्षोदक्षम कवि-कर्म का शासक होने के कारण इस साहित्य-विद्या को साहित्यशास्त्र, काव्यशास्त्र, काव्यानुशासन आदि समाख्या प्राप्त हुई है। कभी-कभी रसादि-समस्त परिकम का अलंकरण क्रियाकारी होने से इसे अलकारशास्त्र भी कहते है। 'काव्य-दर्पण' को भी काव्यशास्त्र का ही पर्याय समझना चाहिये। ____सभ्यता के साथ साहित्य की भी उत्पत्ति होती है। वेद ही हमारा सबसे प्राचीन उपलब्ध साहित्य है । इससे काध का भी मूलस्रोत वेद ही है। वैदिक ग्रन्थों में भी काव्य की झलक पायो जाती है । ऋग्वेद के 'उषा सूक्त में काव्यत्व अधिक उपलब्ध है। साहित्य के श्रादि श्राचार्य भगवान् भरत मुनि माने जाते हैं। ये अपने नाट्यशास्त्र में लिखते है कि ऋग्वेद से नाट्य विषय, सामवेद से संगीत, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रसों को ग्रहण किया । ब्राह्मण, निरुक्त आदि ग्रन्थों से स्पष्ट है कि उस समय के इतिहास-मिश्रित मत्र ऋचाओं और गाथाओं में थे। अनेक उपनिषदों ने इतिहास और पुराण को 'पचम वेद माना है । इतिहास और पुराण प्रायः काधमय ही हैं। रामायण आदि काव्य और महाभारत महाकाव्य है हो । १. न स शब्दो न तद्वाच्यं न तच्छास्त्रं न सा कला। जायते यन्न काव्याङ्गमहो भारः महान् कवेः।-भामह २. जग्राह पाठ्यमृग्वेदात् सामेभ्यो गीतमेव च । यजुर्वेदादभिनयान् रसानाधणादपि !-नाट्यशास्त्र