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मैं जानता हूँ कि शीघ्रता से पुस्तक प्रस्तुत करने तथा छपाने में अनेक त्रुटियां रह गयी हैं। मेरे जैसे जल्दबाज, अस्थिर तथा असावधान एकाकी के कार्य में त्रटियों का होना स्वाभाविक है। मै इस विषय में विज्ञ साहित्यिकों के परामर्श का कृतज्ञता- ज्ञानपूर्वक स्वागत करूँगा, जिससे संस्करणान्तर में इसके सारे दोष दूर हो जायें। मैं अपनी भूल-भ्रान्ति को जानते हुए और यह भी जानते हुए कि कर्मण्येवा- धिकारस्ते मा फलेषु कदाचन-बरसों रात-दिन स्वास्थ्य खोकर जो श्रम किया है, विश्वास है, सहृदय विद्वान् उसका श्रादर करेंगे। यदि यह कहने का मुझे अधिकार न होलेकिन प्राचीन सूक्ति के रूप में इतना निवेदन करने का तो मुझे अवश्य अधिकार है कि विद्ववृन्द कृपा करके वा साहित्यिक के नाते मेरे इस निबन्ध की परीक्षा करे। अभ्यर्थ मस्यनुकम्पया वा साहित्यसर्वस्वसमीहया वा मदीयमार्या मनसा निबन्धममुं परीक्षध्वमत्सरेण ।। विनीतवशंवद द्वितीय संस्करण का वक्तव्य (१९५१) प्रसन्नता की बात है कि काव्यदर्पण-जैसे विशाल ग्रन्थ का इतना शीघ्र द्वितीय संस्करण प्रस्तुत हुआ। इस पुस्तक का पटना, आगरा, लखनऊ, सागर, बम्बई श्रादि विश्वविद्यालयों ने एम० ए० को पाठ्यपुस्तक बनाकर सम्मान किया है। साहित्य-सम्मेलन ने भी रत्न-परीक्षा में इसको रखकर श्रादर दिया है। मैं इन सबों का बहुत ही अनुगृहीत हूँ। मेरा विचार था कि इसके द्वितीय संस्करण में वह अंश और अनुच्छेद और कोई-कोई छाया तक बाद कर दूं, जिनमें खण्डन-मण्डन की विशेषता है, पर मैं यह कार्य करने के पहले ही अस्वस्थ हो गया और आँख की ज्योति भी मारी गयी। यह काम एक साहित्यिक को सौंपा था, पर मैं कह नहीं सकता कि उन्होंने इस विषय में क्या किया ! प्रूफ देखने की बात तो बहुत दूर है, जो कुछ ग्रन्थमाला- कार्यालय के संचालकों ने किया, वह आपके सामने है। जो बातें प्रथम संस्करण की भूमिका में करने का उल्लेख मैंने किया था, वे भी द्वितीय संस्करण में मुझसे न हो सकी। श्राशा है, दयालु पाठक और साहित्यिक त्रुटियों को सुधारकर इसके गुण को ग्रहण करेंगे । किमधिकम् विशेषु । -रामदहिन मिश्र pot