पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/६०

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अभिप्राय प्रकट करनेवाले शब्दात्मक साधन का नाम हुआ बोली। व्यापक और परिष्कृत हो जाने से बोली का नाम हुश्रा भाषा । जब नानाविध अर्थों के प्रकाशन में विलक्षण चमत्कार पनपने लगे तब भाषा ने साहित्य का रूप 'धारण किया। यथासमय संचित साहित्य के वाडमय के दो रूप दिखाई पड़े। “इन्हें क्रमशः शास्त्र और काव्य की संज्ञा दी गयो।' आप इन्हें ज्ञान का साहित्य ( Literature of Knowledge ) और भाव का साहित्य (Literature •of power ) भी कह सकते है। ____ 'धीयते' अर्थात् जो धारण किया जाय वह है हित । हित के साथ जो रहे वह है सहित और उसका भाव है 'साहित्य'। अथवा साहित्य अर्थात् संयुक्त वा सहयोग से अन्वित का जो भाव है वह साहित्य है। साहित्य का तृप्त भी अर्थ है । इसका भाव भी साहित्य है। हित के साथ वर्तमान इस अर्थ में सभी प्रकार के साहित्य आ जाते हैं । सहयोगान्वित के अर्थ मे शब्द और अर्थ के सम्बन्ध का ग्रहण हो जाता है । साहित्य श्रोताओ का तृप्तकारक होता है। अतः, अन्त का अर्थ भी सार्थक है। साहित्य शब्द के अन्य भी अनेक विग्रह और अर्थ किये जाते हैं। साथ के अर्थ में गुप्तजी ने साहित्य शब्द का प्रयोग किया है । तदपि निश्चिन्त रहो तुम नित्य, यहाँ राहित्य नहीं साहित्य । साहित्य शब्द का नये-नये अर्थों में भी प्रयोग होने लगा है | गुप्तजी का ही एक और पद्य देखें- नयी-नयी नाटक सज्जायें सूत्रधार करते हैं नित्य । और ऐंद्रजालिक भी अपना भरते हैं नूतन साहित्य ॥ यहां साहित्य का कौशल आदि अर्थ लिया जा सकता है। जैनेन्द्रजी का एक वाक्यांश है- अपनी अनोखी लगन और अपने निराले विचार-साहित्य के कारण कल वे ही आदर्श मान लिये जाते हैं। यहां यदि साहित्य का उपयुक्त ही अर्थ है तो उत्तम, नहीं तो यदि विचार- वैभव, विचार-गाम्भीर्य, विचार-वैचित्र्य या ऐसा हो कोई नया अर्थ लिया गया तो साहित्य शब्द के अर्थ का यह नवीन अवतार समझा जायेगा। अब तो यह शब्द विज्ञाप्य वस्तु के विज्ञापन की वाङ्मय सामग्री के अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा है। १. शास्त्र काव्यञ्चति वाक मयं द्विधा ।-काव्यमीमांसा