काव्य और नाटकों में रस-तत्व को लेकर इस प्रकार भी भेद किया जा सकता है कि सभी रस अभिनेय नहीं हो सकते, पर अभिधेय होते हैं। सब रसों का काव्य में वर्णन हो सकता है पर सब रसों का-शान्त, वात्सल्य आदि का- वैसा अभिनय नहीं हो सकता जैसा कि अन्य रसी का। इसीसे भरत ने 'अष्टौ नाट्यौ रसाः स्मृताः' लिखा है और शान्त को छांट दिया है। यह भी ध्यान देने की बात है कि नाट्य-रस को काव्य-रस में लाया जा सकता है। पर काव्य-रस को नाट्य-रस में नहीं। पाश्चात्य विवेचक काव्य को ऐसा महत्व नहीं देते। अरस्तू कहते हैं कि "सुचारु रूप से लक्ष्य-सिद्धि करने के कारण वियोगान्त नाटक हो सर्वश्रेष्ठ कला है।" शब्द शब्द का धातुगत अथं आविष्कार करना और शब्द करना भी है। शब्द का अर्थ अक्षर, वाक्य, ध्वनि और श्रवण भी है।३। ____ हम कान से ध्वनि सुनते है और वही अनि चित्त में पैठकर ध्वनिरूप तथा संकेतित अर्थ-रूप की सहायता से एक साथ ही वस्तु को उद्भासित कर देती है। इसीसे पतंजलि का कहना है कि "लोक में पदार्थ की प्रतीति करानेवाली ध्वनि ही शब्द है ।"४ ध्वनि ( Sound) और अर्थ ( sense or meaning ) दोनों के संयोग से हो शब्द की उत्पत्ति होती है। अतः, जहां शब्द है वहां कोई न कोई संकेतित अर्थ अवश्य है और जहाँ कोई मनोगत अर्थ रहता है उसका बोधक कोई न कोई प्रचलित शब्द अवश्य रहता है । अभ्यासवश हमें बोध होता है कि शब्द और अर्थ का सम्बन्ध ऐसा है कि एक के बिना दूसरा नहीं रह सकता। "जो साक्षात् संकेतिक अर्थ का बोधक शब्द है वह वाचक कहलाता है । वाचक शब्दों का अपना-अपना अर्थ उन वस्तुओं के सफेतग्रह-शब्दों के निश्चित सम्बन्ध-ज्ञान पर निर्भर रहता है। इस संकेत और संकेतिक अर्थ का सम्बन्ध नित्य है। जहां संकेत होगा वहां संकेतिक अर्थ अवश्य रहेगा। संकेत और उसके ज्ञान की सहायता से शब्द का अर्थबोध होता है। इसी बात को प्रकारान्तर से क्रोचे भी कहता है-“प्रत्येक यथार्थ ज्ञान वा उपलब्धि तथा अन्त- १. Tragedy is the higher art, as attaining its end more perfectly. २. शब्द आविष्कारे । शब्द शब्दकरणे ।-सिद्धान्त कौमुदी । ३. शब्दोऽक्षरयशोगीत्योक्येि खे श्रवणे ध्वनौ ।-हैमः। ४. प्रतीतिपदार्थको लोके ध्वनिः शब्द इत्युच्यते । -महाभाष्य । ५. साक्षात् संकेतितं योऽयमभिधत्त
पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५४
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।