पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३६ कल्पना और भावना द्वारा अनुर' जित होती है । फलस्वरूप, अनुकरण ही काव्य का सर्वस्व नहीं हो सकता। काव्य में अनुकरण का योग होता है-छायामनु- हरति कविः। अरस्तू ने भी अनुकरण के सम्बन्ध में कहा है कि "अनुकरणकारी होने के कारण कवि तीन विषयों में से एक विषय का अनुकरण कर सकता है-वस्तु जैसी थो वा है ; वस्तु जैसी होने लायक कही वा सोची गयी है या वस्तु को जैसी होना चाहिये। अनेक प्राचार्य वा समालोचक काव्य वा नाटक को संपूर्णतः अनुकरण (imitation ) या प्रतिचित्र (representation ) नहीं मानते । ये कहते हैं कि “लौकिक पदार्थ से भिन्न अनुकरण का प्रतिविब-स्वरूप नाटक होता है ।"२ काव्य और नाटक काव्य का प्रारम्भ बैदिक काल से ही है और वेदों में काव्यतत्त्वों की बहुलता है। ऋग्वेद के ऊषा-सूक्त में काव्यत्व अधिक पाया जाता है । 3 नाट्य-शास्त्र के प्राचार्य भरत के कथन से विदित होता है कि आधुनिक नाटक के साथ काव्य का भी इनके पूर्व प्रचार था। वे लिखते हैं कि "महेन्द्र, आदि देवताओं ने पितामह ब्रह्मा से कहा कि हमलोग इस प्रकार की क्रीड़ा करना चाहते हैं जो दृश्य और श्रव्य दोनों हों।' दृश्य और श्रव्य नाटक और काव्य है। सत्य और तथ्य की दृष्टि से काव्य और नाटक में कोई अन्तर नहीं है। दोनों का ही उद्देश्थ है, विशेष को निर्विशेष करना अर्थात् व्यक्ति-विषयक वस्तु को सार्वजनिक रूप देना, वस्तु को वैयक्तिक न रखना । दृश्य हो चाहे श्रव्य, एक उद्देश्य होने से दोनों हो काव्य शब्द से अभिहित होते हैं। कहा भी है-'काव्येषु नाटकं श्रेष्ठम्' । काव्यों में नाटक की श्रेष्ठता का कारण यह है कि श्रव्य काव्य का केवल श्रवणेन्द्रिय से सुनकर मन से उपभोग होता है और नाटक के उपभोग में आँख, कान और मन, तीनों का उपयोग होता है। १. The poet being an imitator....must of necessity imitate one of the three objects-things as they were or are, things as they are said or thought to be things, as they ought to be. The Poetic. २. त नाटकं नाम लौकिक पदार्थ व्यतिरिक्त ३. 'काव्यालोक-द्वितीय उद्ये.