पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४७४

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अतिशयोक्ति ३६३ इसमें गंगा पर उत्प्रेक्षा की गयी है, पर 'मानो' आदि वाचक शब्द नहीं। इसीसे प्रतीयमाना है । गंगा को 'गली हुई मोतियों को माला' कहा गया है वह गंगाजल का कारण नहीं है। २ प्रतीयमाना फलोत्प्रेक्षा 'रोज आह्वात है क्षीरधि में ससि तो मुख की समता लहिबे को है'। इसी प्राचीन उक्ति पर यह नवीन उक्ति है- नित्य ही नहाता क्षीर-सिन्धु में कलाधर है सुन्दर तवानन की समता की इच्छा से। समता को इच्छा रूप जो यहाँ फल-कामना है उसको उत्प्रेक्षा की गयी है। यह वाचक न रहने से प्रतीयमाना है। सापह्नवोत्प्रेक्षा जहाँ अपहृ ति सहित उत्प्रेक्षा की जाती है वहाँ यह अलंकार होता है। इसके अनेक भेद हो सकते हैं। विकलता लख के ब्रज देवि की रजनि मा करती अनुताप थी। निपट नीरव ही मिस ओस के नयन से गिरता बहु वारि था। हरि० यहां श्रोस का निषेध करके उसमें रात के आंसू को उत्प्रेक्षा होने से • सापह्नवोत्प्रेक्षा है। जन प्राची जननी ने, शशि शिशु को जो दिया डिठौना है, उसको कलंक कहना यह भी मानो कठोर टोना है। यहां कलक का निषेध करके मा का डिठौना के रूप में उसको उत्प्रेक्षा को -गयो है। १२ अतिशयोक्ति (Hyperbole) लोक-मर्यादा के विरुद्ध वर्णन करने को-प्रस्तुत को बढ़ा-चढ़ाकर कहने को अतिशयोक्ति अलंकार कहते हैं। प्रारम्भ में कहा गया है कि प्रायः प्रत्येक अलंकार के मूल में अतिशयोक्ति रहती है, जो चमत्कार का कारण है । चमत्कार को विशेषता से ही अलंकारों के भिन्न-भिन्न नाम दिये गये हैं। अतिशयोक्ति के अन्तर्गत अनेक अलंकार अनेक रूप में आते हैं, जिनका अभी तक नामकरण नहीं हुआ है। वर्तमान हिन्दी-साहित्य • ऐसे अलकारों का जनक हो रहा है।। इसके मुख्य पांच भेद हैं-१ रूपकातिशयोक्ति, २ भेदकातिशयोक्ति, ३ संबंधातिशयोक्ति, ४ असम्बन्धातिशयोक्ति और ५ कारणातिशयोक्ति ।