पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४६८

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उल्लेख ३८७ ६ उल्ले ख ( Representation ) जहाँ एक ही वर्णनीय विषय का निमित्त-भेद से अनेक प्रकार का वर्णन हो वहाँ उल्लेख अलंकार होता है । (क) ज्ञाताओं के भेद से एक ही पदार्थ का, जहाँ भिन्न-भिन्न विधि से उल्लेख हो, वहां प्रथम उल्लेख होता है। घनघोष समझ मयूर लगे कूकने, समझी गजेन्द्र ने दहाड़ मृगराज को । सागर ने समझी प्रभंजन की गर्जना, पर्वतों ने समझी कड़क महावज्र को । गंगाधर चौके जयघोष को समझ के, गंगा आ रही है ब्रह्मलोक से गरजती। -'आर्यावर्त' महाकाव्य से यहाँ जयघोष को भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने भिन्न-भिन्न रूप से समझा है। (ख) जहां एक ही व्यक्ति विषय-भेद के कारण किसी पदार्थ को अनेक रूपों में देखता है वहाँ दूतरा उल्लेख होता है । विन्दु में थी तुम सिन्धु अनन्त एक सुर में समस्त संगीत । एक कलिका में अखिल वसंत धरा पर थीं तुम स्वर्ग पुनीत ।-पन्त यहां एक ही व्यक्ति ने प्रिया को अनेक रूपों में जाना-माना है । तू रूप है किरन में सौन्दर्य है सुमन में, तू प्राण है पवन में विस्तार है गगन में। तू ज्ञान हिन्दुओं में ईमान मुस्लिमों में, तू प्रेम क्रिश्चियन में है सत्य तू सुजन में।-ग० न० त्रि० यहाँ एक ही कवि ने परमात्मा को अनेक रूपो में देखा है। १० अपह्न ति (Concealment ) अपह्ल ति का अर्थ है गोपन, छिपाना, वारण, निषेध आदि । जहाँ प्रकृत ( उपमेय) का निषेध करके अप्रकृत (उपमान) का स्थापन ( आरोप) किया जाय वहाँ यह अलंकार होता है। इसमें सच्ची बात को छिपाकर दूसरी बात कही जाती है। कही-कहीं उपमेयोपमानभाव के बिना भी अपह्न ति होती है। अपहृ ति का अर्थ है गोपन (छिपाना ) या निषेध । अपन ति सात प्रकार की होती है। १शुद्धापत ति-वह है जिसमें वास्तविक उपमेय का निषेधात्मक शब्द द्वारा छिपा करके उपमान का आरोप किया जाय । इसको शाब्दी अपह्न ति कहते हैं।