पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४५६

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रसमोपमा (अ) वाचक-धमंउपमेय लुप्तोपमा- मत्त गयंद, हंस तुम सो हैं कहा दुरावति हमसों केहरि कनक कलश अमृत के कैसे दुरे दुरावति विव म हेम वज्र के किनुका नाहिन हमें सुनावति । -सूरदास इसमें गयंद, हंस, केहरि, कनक, कलस आदि उपमान ही हैं और इनसे नायिका को गति, कटि, स्तन, रंग आदि उपमेय को सुन्दरता वर्णित है। "अद्भुत एक अनुपम बाग--जैसे नायिका के शरीर को लेकर कोई रूपक नहीं बांधा गया है, जिससे यहां रूपकातिशयोक्ति नहीं कही जा सकती। इनके अतिरिक्त उपमा अलंकार के और भी भेद होते हैं- श्लिष्टोपमा श्लिष्ट शब्द द्वारा समान धर्म के कथन में श्लिष्टोपमा अलंकार होता है। उदयाचल से निकल' मंजु मुसुकान कर वसुधा मन्दिर को सुन्दर आलोक से, भर देनेवाली नवीन पहली उषा के समान ही जिसका सुन्दर नाम है। कुसुम इस 'उषा' शब्द के श्लेष से राज्यकन्या उषा भी वैसे ही मुसुकान के प्रकाश से वसुधा-मन्दिर को भर देनेवाली प्रतीत होती है जैसी कि उषा-प्रातःकाल को अरुण किरणमाला। समुच्चयोपमा जहाँ उपमान के धर्मों का समुच्चय-जमाव हो वहाँ यह अलंकार होता है। दिव्य, सुखद, शीतल, रुचिर तब दर्शन विधु-रूप इसमें उपमान विधु के चार धर्मों से दर्शन को उपमा दी गयी है । रसनोपमा जहाँ उपमेय एक दूसरे के उपमान होते चले जायँ वहाँ रसनोपमा अलंकार होता है। यति सी नति नति सी बिनति बिनती सी रति चारु । रति सी गति गति सी भगति तो में पवन कुमार ।-प्राचीन इसमें नति, बिनति आदि उपमेय उपमान होते चले गये है ।