३५६ अलंकार और मनोविज्ञान हो है, सांप नहीं तो उसे भय नहीं होता। वह जान-बूझकर नही उछलता। उसे सांप का वास्तविक भय हुआ था। यदि उसे यह बात मालूम रहती कि उसके उछलने से ही यहां भ्रमालंकार हो जाता है, तो उसका भाव सत्य और विश्वसनीय न होता। उसका भय कल्पित नहीं वास्तविक है।" ___ यदि इस उदाहरण पर विचार किया जाय तो बड़ा विस्तार हो जायगा । 'रज्जो स्थाहेभ्रमः' यह एक दार्शनिक उदाहरण है। इसमें भ्रम की बात स्पष्ट है । भ्रम के स्थान में ही भ्रान्तिमान होता है। उक्त उदाहरण में भ्रान्तिमूलक ही भय है। वस्तु की ओर से वास्तविकता रस्सी की है और भ्रामकता उसीमें है। उछलना भय का व्यापार है, भ्रान्ति का नहीं। भ्रान्ति के उदाहरण अनेक प्रकार के हैं, जिनमें अल कारों के प्राण चमत्कार है। नाक का मोती अधर की कान्ति से, बीज दाडिम का समझकर भ्रान्ति से। देखकर सहसा हुआ शुक मौन है, सोचता है अन्य शुक यह कौन है ?-सा० नाक के लाल बने मोती को अनारदाना समझकर शुक को यह सोच समा गया है कि दूसरा शुक कहां से आ गया। इसने नासिका को शुकचंचु समझ लिया है, जो दाडिम खा रहा है। यहाँ तो उछलना-कूदना नहीं, चमत्कार-प्राण भ्रान्ति ___ यदि कसाई को कर, सज्जन को देवता या सरल वचनों को फूल झड़ना या कटु वचनों को आग उगलना कहते हैं तो उसके अन्तर में सादृश्य की हो मनोवृत्ति काम करती है । ऋरता तथा सज्जनता का अतिरेक और सरलता तथा क्टुता को अतिशयता हो वक्ता के हृदय में लक्षणा के ऐसे स्वरूप खड़ा करने को विवश कर देती है । इस प्रकार की उक्तियाँ प्रेषणीयता को-दूसरे को अनुभव कराने को शक्ति ला देती हैं और काव्य का आकार धारण कर लेती है। यहाँ पर हम क्रोचे के 'उक्ति ही काव्य है' इस कथन को मान लेते हैं। हमारे मानने का कारण लक्षणामूलक अविवक्षित वाच्य-ध्वनि है। विरोधमूलक अलंकारों में भी मनोवैज्ञानिकता है। क्योंकि, इनके वैचित्र्य से 'मन में एक प्रकार का कुतूहल उत्पन्न होता है । इससे मन के किल्विष दूर हो जाते हैं, उसका सार हल्का हो जाता है। विरोधमूलक अलंकार विरोधाभास, विषम, विशेषोक्ति, असंगति, विशेष, व्याघात आदि कई हैं, जिनका पता आगे के वर्णन से लग जायगा। एक उदाहरण लें- पी ली मधुमदिरा किसने थीं बंद हमारी पलकें। अब यहाँ कारण-कार्य को असंगति दीख पड़ती है तब मन एक प्रकार से विस्मयविमुग्ध हो उठता है।
पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४४१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।