पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४४

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काव्यकला और ललितकला पश्चिमी प्रभाव से काव्य कला के अन्तर्गत माना जाने लगा है । इसके दो भेद है-एक उपयोगी कला और दूसरी ललित कला । जीवन की स्थूल आवश्यकताअो की पूर्ति के लिए बढ़ई, लुहार, सुनार आदि की कला शिल्पकला है । इनकी मुख्यता उपयोगिता मे है। इनका रंग-रूप गौण माना आता है; किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि इनमे सौन्दर्य नहीं होता। ललित कला का सम्बन्ध मन से है; क्योकि 'ललित कला मानसिक सौन्दर्य का प्रत्यक्षीकरण है ।' मानसिक तृप्ति के लिए वह अत्यन्त आवश्यक है। ललित कला के साधारणतः पाँच भेद माने गये है--१ स्थापत्य-वास्तुकला या भवन-निर्माण-कला, २ भास्कर्य वा मूर्तिनिर्माण-कला वा शिल्पकला, ३ चित्रकला, ४ संगोतकला और ५ काव्यकला । इनके अतिरिक्त नृत्यकला तथा अभिनयकला का नाम भी लिया जाता है, पर इनका उनमें अन्तर्भाव किया जा सकता है। मूर्तिकला चित्रकला से ऊँची कही जाती है और उससे भी काव्यकला का ऊँचा -स्थान है । संगीत और काव्य, दोनो अमूर्त कलाये है। श्रोत्र और नेत्र, दोनो से काव्यानन्द का उपभोग किया जाता है, इससे भी काव्य श्रेष्ठ माना जाता है। संगीतकला का काव्यकला से गहरा सम्बन्ध है। संगीत के साधन शब्द है। निराधार संगीत नहीं हो सकता, गलाबाजी भले हो । संगीत के शब्द काव्यमय हों तो उनके सौन्दर्य का पारावार नहीं रहता । “गीत, वाद्य और नृत्य, तीनो का नाम तौर्यत्रिक है और इनको रस-प्रधान होना चाहिये।" संगीत के सातो स्वरों की इन रसो में प्रधानता मानी गयी है। 'सा. रे. वीर, अद्भुत और -रौद्र को, ध वीभत्स और भयानक को, ग और नी करुण को, म और प हास्य और शृंगार को उद्दीपित करते है”।२। चित्रकला मे रंग और रेखा का खेल है । रेखा तो नहीं, पर रंग काव्य से चित्रकला को जोडता है । भरत से लेकर आज तक के साहित्यिक पाप को मलीन, यश को स्वच्छ, क्रोध को लाल आदि वर्णन करते आये है और कवि-समय-ख्याति के नाम से ये प्रसिद्ध हो गये हैं। बुंड का कहना है, "रंग का सम्बन्ध १ (क) रमप्रधानमिच्छन्ति तौर्यत्रिकमिद विदः। संगीतरत्नाकर । (ख) तौर्यत्रिकं नृत्यगीतवादित्रातोधनामकम् । अमरकोष । २ सरी वीरेऽद्भुते रौद्रे ध वीभत्से भयानके । कार्यों गनी तु करणे हास्यशृङ्गारयोर्मपौ ॥ संगीतरत्नाकर । ३ मालिन्यं व्योम्नि पापे यशसि धवलता"""| साहित्यदर्पण ।