पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४३२

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छठी छाया अलंकार के कार्य 'भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होनेवाली युक्ति अलंकार है।'-शुक्लजी ___इसीके अन्तर्गत प्रमावोत्पादकता और प्रेषणीयता भी आ जाती है । इस प्रकार अलंकारों के दो काय हुए-पहला है भावों का उत्कर्ष दिखाना तथा दूसरा है वस्तुओं के क) रूपानुभव को और (ख) गुणानुभव को और (ग) क्रियानु- भव को तीन करना। १ भावों को उत्कर्ष-व्यञ्जना में सहायक अलकार- प्रिय पति वह मेरा प्राण-प्यारा कहाँ है ? दुख-जलनिधि डबी का सहारा कहाँ है ? . लख मुख जिसका मैं आज लौं जी सकी हूँ, वह हृदय हमारा नेत्र-तारा कहाँ है ?-हरिऔध इसमें प्राण-प्यारा, नेत्रतारा, हृदय हमारा आदि में जो उपमा और रूपक अनङ्कार आये हैं उनसे यशोदा को विकलता तीब से तीव्रतर हो रही है। तरल मोती से नयन भरे मानस से ले उठे स्नेह घन कसक विद्युत पुलकों के हिमकण सुधि स्वाती की छाँह पलक की सीपी में उतरे ।- महादेवी यहाँ का रूपकालंकार अश्रु ओं को वह रूप देता है, जिससे हृदय की विह्नलता पराकष्ठा को पहुँच जाती है। लिख कर लोहित लेख, डूब गया है दिन अहा । व्योम-सिन्धु सखि देख, तारक बुबुद दे रहा । गुप्त दिनान्त में पश्चिम की ओर ललाई दौड़ जाती है और फिर आकाश. में तारे दिखाई पड़ते हैं। दिन का ललाई-रूप में लिखित लोहित लेख अंगार-बा दाहक है, जो उर्मिला को मार्मिक पीड़ा का द्योतन करता है । यहां करुण में रूपक भावोत्कर्ष का सहायक है। कोई प्यारा कुसुम कुम्हला मौन में जो पड़ा हो, तो प्यारे के चरण पर लागल देना उसे तू। यों देना ऐ पवन बतला फूल-सी एक बाला। मलाना हो-हो कमल पग को चूमना चाहती है। हरिऔध