३४७ अलंकार के रूप इसमें 'पाई का अनुप्रास है, जिससे एक का अर्थ पाना और दूसरे का अर्थ पैसा है । इसमें शब्द का अनुप्रास है । राम हृदय जाके बसै विपति सुमंगल ताहि । राम हृदय जाके नहीं विपति सुमंगल ताहि । इसमें वाक्यों का अनुप्रास है । अन्वय से अर्थ भिन्न हो जाता है। काव्य में उसी बाहश्य का महत्व है जो भावों को उत्तेजना देता है और उसमें तीव्रता लाता है। स्वरूप-बोध के लिए भी अलंकार-योजना होती है । इस शुष्क स्वरूप-बोध में भावों को यदि प्राणप्रतिष्ठा हो जाय तो उसकी भी महत्ता कम नहीं होती। जन्म, मृत्यु और जन्मान्तर से जकड़ा हुआ और अनेक परिवर्तनों का महापात्र आत्मा भी निःसंग आकाश के समान ही निविकार है । इस स्वरूप-बोध के लिए यह कैसा रस वर्णन है। वक्ष पर जिसके जल उडुगन बुझा देते असंख्य जीवन, कनक और नीलम यानों पर दौड़ते जिस पर निशि-बासर । पिघल गिरि से विशाल बादल न कर सकते जिसको चंचल, तड़ित की ज्वाला घन गर्जन जगा पाते न एक कंपन, उसी नम सा क्या वह अविकार और परिवर्तन का आधार ।--महादेवी साम्य तीन प्रकार का माना गया है । (१) शब्द की समानता, जिसका ऊपर उल्लेख हो चुका है। (२) रूप या आकार की सामानता और (३) साधर्म्य अर्थात् गुण या क्रिया की समानता। इन दोनों के अंतरंग में एक प्रभाव-साम्य भी छिपा रहता है। प्रभाव-साम्य पर ध्यान देकर की गयी कविता की महत्ता बढ़ जाती है। वह पाठकों को अत्यन्त प्रभावित करती है । जैसे, करतल परस्पर शोक से उनके स्वयं घर्षित हुए, तब विस्फुरित होते हुए भुजदण्ड यों दर्शित हुए। दो पदम शुण्डों में लिये दो शुण्ड वाला गज कहीं, मर्दन करे उनको परस्पर तो मिले उपमा कहीं। -गुप्त इसमें जो सादृश्य है वह आकार का है। इसके भीतर यह प्रभाव भी दशित होता है कि शुण्ड समान ही भुजदण्ड भी प्रचण्ड हैं और करतल अरुण और कोमल हैं। नवप्रमा-परमोज्ज्वल लीक सी गतिमती कुटिला फणिनी समा। बमकती दुरती घन अंक में विपुल केलिकलाखान दामनी।-हरिऔध
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