काव्यदपणे अप्रस्तुतयोजना भी नहीं फबतो , क्योंकि तिम्परक्षिता के भाव कुणाल के प्रति कलवस्वरूप हैं। प्रेयसो और दासी का एक साथ होना, गंगामदार का जोड़ा है। हो, भ्रष्टचरित्रा दासी-सी वह हो सकती है ; किन्तु अन्य दृष्टियों से दासी की उसमें पूर्णता नही । पाठक अब स्वयं समझ लें कि यह मुर्दे का सिगार नहीं तो और क्या है। यह न ससझना चाहिये कि सुन्दर उपमान होने से ही रचना सुन्दर हो जा सकती है । अल कार को स्वस्थ पृष्ठ-भूमि-रस-भाव के बिना उपमान कुछ नहीं कर सकते । रस-भाव अर्थात् अलंकार्य सजीव हो तो भद्दी अप्रस्तुत-योजना भी उसकी शोभावृद्धि कर सकती है । जैसे, बेला फूले बन बीच-बीच मानो वही जमायो सींच-सींच । बहि चलत भयो है मन्द पौन मनु गदहा का छान्यो पैर। गेंदा फूले जैसे पकौगे।-हरिश्चन्द्र यहाँ के उपमान भद्दे और ग्रामीण कहे जा सकते हैं, पर इनके सादृश्य की ओर से आंखें बन्द नहीं की जा सकती हैं। इस अप्रस्तुत-योजनाओं से हास्य रस को पुष्टि होती है। सारांश यह कि अलंकार के जो कार्य हैं वे यदि उनसे हो सके तभी उनको सार्थकता है। पाँचवीं छाया अलंकार के रूप अधिकतर अलंकार सादृश-मूलक होते हैं । यह सादृश्य दो प्रकार का होता है। एक तो सदृश शब्दों वा सदृश वाक्यों को लेकर अलंकार-योजना की जाती है जो हमारे हृदय को छूती नहीं। यह केवल चमत्कार पैदा करके पाठकों और श्रोताओं को चमत्कृत कर देती है । इससे हमें जो आनन्द होता है वह क्षणिक है । काव्य में इसका उतना महत्त्व नहीं है । जैसे, गया गया गया। . शन्द एक ही हैं पर तीनों के अर्थ अलग-अलग हैं। वे अर्थ है-गया नामक व्यक्ति गया नामक शहर को गया। है जिसकी समानता किसी ने कमी पाई नहीं, पाई के नहीं है अब वे ही लाल माई के।
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