पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४२४

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३४२ काव्यदर्पण प्रारंभ से ही वाच्यार्थ में प्रभावोत्पादक अलंकार इस रूप में नहीं रह पाये जैसा कि कटक, कुण्डल, बल्कि वे ऐसे हो गये जैसे कि शारीरिक सौन्दर्य । अलंकार मात्र में बालकारिक वक्रोक्ति' या अतिशयोक्ति का अस्तित्व मानते हैं । इस दशा में यह कैसे कहा जा सकता है कि अलंकार भावप्रकाशन का एक चामत्कारिक अंग है और उसको पृथक् रूप में स्थिति मान्य है। जब हम उक्तिवैचिश्व और अतिशयोक्ति को शरण लेते है तब उसमें हमें घुल-मिल जाना ही होगा। यदि यहाँ अलंकार्य और अलंकार के अन्तर न रहने की बात कही जाय तो ठीक नहीं। उदाहरण ले- बीच बास करि यमुनहि आये। निरखि नीर लोचन जल छाये ॥ भरतजी ने जब यमुना का जल देखा तो आँखों में आँसू भर आये। यदि उक्ति हो-कलामय कथन ही काव्य है तो यह काव्य नहीं कहा जा सकता। क्योकि, इसमें कलामय कोई उक्ति नहीं है। यहाँ अलंकार्य राम का श्याम रंग है। अलंकार स्मरण है। यदि इस अलंकार की शरण न लें तो भरत की आँखों में आँस का आना असंभव है। यमुना-जल न तो आंसू-गैस है और न धुश्रा। इससे क्रोचे का मत यहाँ काम नहीं देता। हमारे मत से इसमें काव्यत्व भी है और अलंकार और अलंकार का भिन्नख भो । श्याम, राम और यमुना जल में जो साम्य है वही यहाँ व्यंग्य है। यदि इसमें श्रासू उमड़ने की बात न होती तो यहाँ स्मरण अलकार को प्रश्रय नहीं मिलता और म श्यामता की व्यञ्जना ही होती । यहाँ चन्द्रमा के ऐसा सौन्दय का आधिक्य प्रकट करने के लिए स्मरण को बाहर से पकड़ करके नहीं लाया गया है। तथापि यहाँ स्मरण ने जो चमत्कार पैदा किया है वह भरत के आँसू में झलक रहा है। यह जो कहा जाता है कि ऐसे स्थानों में भागवत ही सब कुछ रहता है। क्योंकि, अतिरिक्त सौन्दर्य की उत्पादक कोई वस्तु नही रहती, सो ठीक नहीं । हमारा कहना यह है कि भावों की सृष्टि भी तो ऐसे अलंकारों से ही होती है। यहाँ स्मरण अलंकार आँसू छलछलाने से व्यक्त भरत के भ्रातृभाव को अपरिमेय और अवर्णनीय बताकर ही नहीं छोड़ देता, अपितु रस की भी व्यजना करता है। क्या यह अतिरिक्त सौन्दर्य नहीं ? जो लोग 'वन में हरिणी के साथ हरिण को उछलते- कूदते देखकर विरही राम को सीता को याद आयो' में अतिरिक्त सौन्दर्य नहीं देख पक्राभिधेव शब्दोक्तिरिष्टा वाचामलंकृतिः। काव्यालंकार अलकारान्तराणामप्येकनार्मनीषिणः 1 मागीशमहिता मुक्ति मिमातिशयाहयाम् । काव्यादर्श