पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४१४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३३२ काव्यदर्पण (गाढ़ और सरल रचना) नामक दस गुण और अर्थ के भी ये हो दस गुण माने हैं। यत्र-तत्र इनके लक्षणो में नाम मात्र का अन्तर है। ___ यद्यपि आचार्यों ने प्रधानतया तीन ही गुण माने हैं; पर आधुनिक रचना पर दृष्टिपात करने से कुछ अन्यान्य गुणों का मानना आवश्यक प्रतीत होता है। आजकल ऐसी अधिकांश रचनाएँ दीख पड़ती हैं जिनमें न तो प्रसादगुण है और न ओजोगुण , बल्कि इनके विपरीत उनके अनेक स्वरूप देख पड़ते हैं। जैसे, कंप-कॅप हिलोर रह जाती रे मिलता नहीं किनारा। बुद बुद विलीन हो चुपके पा जाता आशय सारा ।-पंत जीवन का रहस्य जीवन में लीन हो जाने से ही प्राप्त होता है, यह जो पद्य का अभिप्राय है. वह अति-मात्र से ही सरल-सुबोध शब्दों के रहने पर भी सहज ही ज्ञात नहीं होता । इपमें अोजोगुण के भी साधन नहीं हैं। उपयुक्त दस गुणों में इनका अन्तर्भाव हो जा सकता है।