पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४११

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

माधुर्य ३२९ नहीं हो सकता । अलंकार के स्थान में रस नहीं भी रह सकता है। किन्तु गुण विना रस के रहेगा ही कहाँ ? अलंकार की अपेक्षा गुण का अधिक महत्व है। तीसरी छाया माधुर्य माधुर्य वह गुण है जिससे अन्तःकरण आनन्द से द्रवीभूत हो जाय-आद हो जाय। । जब चित्तवृत्ति स्वाभाविक अवस्था में होती है तब रति श्रादि के रूप से उत्पन्न अानन्द के कारण माधुर्य-गुण-युक्त रस के श्रास्वादन से स्वभावतः चित्त द्रवीभूत हो जाता है-पिघल जाता है । क्रमशः माधुयं गुण संभोग से करुण में, करुण से विप्रलंभ में और विप्रलंभ से शांत में अधिकाधिक अनुभूत होता है। ट ठ ड ढ को छोड़कर 'क' से 'म' तक के वर्ण ङ, ञ, ण, न, म, से युक्त वर्ण ह्रस्व र और ण, समास का अभाव या अल्प समास के पद और कोमल, मधुर रचना माधुयं गुण के मूल हैं। (क) विन्दु में थी तुम सिंधु अनन्त, एक सुर में समस्त संगीत । एक कलिका में अखिल वसंत धरा पर थीं तुम स्वर्ग पुनीत ।-पंत (ख) निरख सखी ये खंजन आये फेरे उन मेरे रंजन ने इधर नयन मन-भाये ।-गुप्त उपयुक्त पद्यों में नियमानुसार र, ठ, ड, ढ रहित स्पर्श वणं हैं, सानुस्वार पद हैं और समासाभाव है । अतः माधुर्य की व्यंजना है । यह कोई आवश्यक नहीं कि सानुस्वार रचना में हो माधुर्य हो । कोमल-कान्त- पदावली में भी माधुयं गुण होता है। तेरी आमा का कण नम को वेता अगणित बीपक दान । दिन को कनकराशि पहनाता विधु को चांदी का परिधान । महादेवी यह प्रसाद गुण का उदाहरण नहीं हो सकता; क्योंकि इनको मधुर रचना का अानन्द सहज ही उपलब्ध नही । फिर भी मतभेद संभव है।