गुणों से रस का सम्बन्ध ३२७ को आकर्षक बनाते हैं। ये वर्ण यद्यपि काव्य के शरीर पर टिके हुए होते हैं, फिर भी इनसे आत्मा का उपकार होता है। मधुर शब्दों से रस मधुर प्रतीत होता है। ___'प्राकारोऽस्य शूर:-'इसका श्राकार शूर है। आदि प्रयोग इस व्यवहार के पोषक हैं कि आत्मा के भावों का शरीर पर उपचार होता है। माधुर्य गुण में मधुर अक्षरों का पर्याप्त समावेश रहता है । अक्षरों की मधुरता श्रवण-सुखद होने पर निर्भर है। अपने वर्ग के पांचवें अक्षर-3, भ, ण, न और म-जब अपने ही वर्ग के भिन्न-भिन्न अक्षरों से जुड़े हुए हों तो उनमें सहज ही मिठास आ जाती है। माधुर्य में समास का अभाव या वह नाममात्र का रहता है। इन्हीं कारणों से शृङ्गार आदि रसो में यह अद्वितीय उपयोगी प्रतीत होता है। कुछ रस ऐसे हैं, जिनमें हृदय विस्तृत-सा हो उठता है। शृङ्गार-भावना उगने से जिस प्रकार मिठास का अनुभव होता है, उसी प्रकार आवेग से उद्दीपन का । मन को यह अवस्था तब हो जाती है, जब उसमें एक आवेश का सहसा उदय हो जाता है । इसकी स्थिति उस इन्धन से संतुलित की जा सकती है जो आग के योग से बल उठता है, चित्त की यही स्थिति दोप्त कही जाती है। चूँ कि उग्र भावना कलेजे में फैलाव-सा ला देती है। अतएव उसे हृदय विस्तार-स्वरूप प्रोज कहा जाता है। ____वीर, वीभत्स और रौद्र रस में यही श्रीज गुण रहता है। वौर में उत्साह, रौद्र में क्रोध का स्थायी भाव होने के कारण हृदय में विस्तार और दीप्ति का होना तो प्रकृति-सिद्ध है ही, साथ ही, वीभत्स में भी उद्विग्नता प्रतीत होने से दौस का होना असम्भव नहीं। घृणित वस्तु को भावना उसके आलम्बन-विभाव के प्रति एक असहनीय विरोधी प्रवृति की सृष्टि करती है। प्रोज-गुण के पदों में प्रायः समान को अधिकता होती है और कर्णकटु अक्षरों को जमघट रहती है। अर्थ में रोज हो तो समास का अभाव और साधारण वर्ण भी इस गुण के अन्तर्गत हो सकते हैं। . श्रोज-गुण वीर-रस में संयत भाव से रहता है। क्योंकि वीर उत्साही होते हैं, क्रोधी नहीं। वीभत्स में श्रोष का रूप कुछ तीव्रता लिये रहता है। क्योंकि, उससे मन उकता जाता है, पालम्बन की स्थिति अत्यन्त विरस-प्रतिकूल लगती है। रौद्र में श्राकर यही अत्यन्त प्रखर हो जाता है । खोके हुए व्यक्ति का हृदय जल-सा उठता है। उसको रुद्र प्रकृति श्राज को अन्तिम सीमा है । इसके व्यंजक-वर्णों में वर्ग के प्रथम क, च, ८, त और प का वर्ग के द्वितीय ख, छ, ठ, थ और फ के साथ तथा वर्ग के तृतीय ग, ज, ड, द और व का वर्ग के चतुर्थं घ, झ, ड, ध और भ के साथ योग अपेक्षित रहता है । अपर (जैसे अक), नीचे (जैसे भद्र) और दोनों स्थानों में (जैसे श्राद्र) २' का मिलन भी इसका पोषक है। ट, ठ, ड, और ढ की बहुतायत होना इसमें खास बात है।
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