वर्णन-दोष ३२१ (२) प्रकृति-विरोध- बिंदुसार के परम पुण्य से उपजा श्यामल विटप अशोक । स्निग्ध सघन पल्लव के नीचे छाया चिर शीतल आलोक ॥ पल्लवों के नीचे आलोक नहीं छाता, अन्धकार छाता है। यह प्रत्यक्षसिद्ध है। पल्लवों के हिलने-डुलने से छाया और आलोक को आंखमिचौनी हो सकती है, पर अंधकार को आलोक बना देना उचित नहीं। आप लक्षण से यह अर्थ करें कि अशोक को छत्रच्छाया में सभी सुखी थे। किन्तु लक्षण के शास्त्रों में भी पल्लवों के नीचे आलोक ठहर नहीं सकता । श्यामल तो व्यर्थ है ही। (३) अर्थ-विरोध- लगी कामना के पक्षी दल करने मधुमय कलरव । लगी वासना की कलिकायें बिखराने मधुवैभव ॥ कलिका का अर्थ है पुष्प की अविकसित अवस्था । यह कलिका अधखिली भी नहीं है । यह प्रत्यक्ष है कि विकसित होने पर ही फल अपनी सुगंध फैलाता है, कलिका नहीं । यहाँ कलिका सुरभि ही नहीं, मधुवैभव फैलाती है। कलिका फूली रहती तो न जाने क्या होता ! पूर्वाद्ध में 'लगी' और 'विखरने क्रिया चिन्त्य (४) स्वभाव-विरोध- फाड़ फाड़ कर कुम्भस्थल मदमस्त गजों को मर्दन कर । दौड़ा, सिमटा, जमा, उड़ा पहुचा दुश्मन की गर्दन पर। तीसरे चरण में घोड़े की गति का जो वर्णन है वह स्वाभाविक नही। इसकी क्रियाओं पर ध्यान देने से ही स्पष्ट हो जाता है । मालूम होता है, चेतक बारात में जैसे जमैती करता हो। (५) भाव-विरोध- " आखों में था घन अंधकार पवतल बिखरे थे अग्निखंड । वह चलती थी अङ्गारों पर ले करके जलते प्राणपिण्ड । जब आँखों में घना अन्धकार था तब चलना कैसा ? टटोलकर पग धरना ही हो सकता था। अङ्गार बिछने की दशा में पैर तो झपटकर ही पड़ सकते थे, यदि अग्निखण्ड को पार करना पड़ता। क्या अंगारों पर चलने ही के लिए अग्निखंड बिखरे थे? क्या अर्थ, क्या भाव है १ अग्नि क्या कोई सीमित वस्तु है, जिसके खण्ड हो गये थे ? यदि अंगार ही थे तो क्या उन्हें अग्नि को संज्ञा नहीं दी जा सकती थी ! ऐसी जगह अंगारों पर चलना मुहावरा भी ठीक नहीं। तिष्यरक्षिता का जो मानसिक भाव था उससे इसका सामञ्जस्य नहीं। कुणाल से तिरष्कृत होने पर उसके मन में बदला लेने की भावना काम कर रही थी।
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