पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३९७

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काव्यदर्पण २. कष्टार्थ-जहाँ अर्थ को प्रतीति कठिनता से हो वहाँ यह दोष होता है । तारागण ताप तापै छौन कल हंसन के मुरवा सु ता ताप कवली की छवि है। केहरि सुता पै ताप कुन्दन को कुण्ड ताप लसित त्रिवेनी मनो छवि ही को छवि है। नोने कवि कहे नेही नागर छबीले श्याम दरस तिहारे देत चारों फल सवि है। कनकलता पै ताप श्रीफल सुताप कंबु कंज युग तापै चंद तापै लसो रवि है। यहाँ कवि ने ऐसे प्रतीकों द्वारा श्री राधाजी के शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन किया है सो सर्व-जन-सुगम नहीं है। यहो क्यों, प्रतिभाशालियों को भी इसका अर्थ कठिनता से ज्ञात होगा। टिप्पणी-क्लिष्ट नामक दोष शब्द-परिवर्तन से मिट जाता है पर इसमें पर्याय- वाची शब्द रखने पर भी यह दोष दूर नही होता । ३. व्याहत-जिसका महत्त्व दिखलाया जाय उसीका तिरस्कार करना दोषावह है। यह दोष वहाँ भी होता है जहाँ तिरस्कृत का महत्त्व दिखलाया जाय । बानी दुनिया में बड़े देत न धन जन हेत। यहाँ दानियों का बढ़प्पन दिखलाकर फिर उसका धन न देने की बात कहकर तिरस्कार किया गया। ४. पुनरुक्त-भिन्न-भिन्न शब्द-भंगिमा से एक ही अर्थ का दुहराना पुनरुक्त दोष है। धन्य है कलंक हीन जीना एक क्षण का युग-युग जीना सकलंक धिक्कार है। इसमें दोनों चरणों का भाव एक ही है जो पुनरुक्त है। मुक्तद्वार रहते थे गृह-गृह नहीं अर्गला का था काम । इसमें भी दोनों चरणों का एक ही अर्थ है। टिप्पणी-जहाँ उत्कषं सूचित हो वहां पुनरुक्त दोष नहीं लगता। ५. दुःक्रम-जहाँ लोक वा शास्त्र के विरुद्ध वर्णन हो वहाँ यह दोष होता है। किसने रे क्या क्या चुने फूल जग के छवि उपवन से प्रकूल REE .. इसमें कलि किसलय कुसुम शुल । । इसमें किसलय, कली, कुसुम रहता तो कृम ठीक था ।