पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३९६

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अर्थ-दोष ३२. विरुद्धमतिकृत-जहाँ ऐसे शब्दों का प्रयोग हो, जिनके द्वारा किसी प्रकृत अर्थ के प्रतिकूल अथं को प्रतीति हो वहाँ यह दोष होता है। कटि के नीचे चिकुर-जाल में उलझ रहा था बायां हाथ । कटि के नीचे इस पद के संनिधान से 'चिकुर-जाल' का अर्थ 'गुह्यांग का केश-समूह' किया जा सकता है जो प्रकृत-वर्णनीय के विरुद्ध मति कर देने- वाला है। (ग) अन्वय-दोष-अन्वय की अड़चन अन्वय-दोष है। थे दुग से झरते अग्नि खंड लोहित थे ज्यों हिंसा प्रचंड । इसमें 'लोहित' हग का विशेषण है या अग्निखंड का, निश्चय नहीं। दोनों हो लाल हैं। यों तो यह व्यर्थ ही है। अभवन्मत सम्बन्ध में सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता और इसमें अन्वय की गड़बड़ी रहती है। (घ) क्रियादोष-अनुचित क्रिया का होना क्रियादोष है । (क) खिलने लगा नवल किसलय वह । (ख) बरसाती अमृत भरी वृष्टि । (ग) जरा भी कर न पायी ध्यान । (घ) प्रक्षालन कर लो हृदय रोग । (ङ) पलक भाजते धमक गया। इनका श्राप हो स्पष्टीकरण है। (ङ) मुहावरा-दोष-मुहावरा का गलत प्रयोग जहाँ हो वहाँ यह दोष होता है। ऊपर के प्रयोग भी मुहावरा के दोष में आते हैं। रणरक्त सिंधु में भर उमड़ा प्रक्षालन कर अपवाद अंग। यहाँ आपादमस्तक मुहावरा है पर अनुप्रास के लिए बिगाड़ दिया गया है। दूसरी छाया अर्थ-दोष १. अपुष्ट-जहाँ प्रतिपाद्य वस्तु के महत्व का वद्धक अर्थ न हो और उसके बिना भी कोई अर्थ-क्षति न हो वहाँ यह दोष होता है। (क) तिमिर पारावार में आलोक प्रतिमा है अकम्पित, आज ज्वाला से बरसता क्यों मधुर धनसार सुरमित । 'क' में सुरभित और विशेषण व्यर्थ हैं ; क्योंकि घनसार सुरभित होता ही है। टिप्पणी-अन्वय के समय अधिक-पद दोष की और अर्थ करने समय अपुष्ट दोष को व्यर्थता ज्ञात होती है।