पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३९३

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कान्यदर्पण ____२०. कथित पद-एक पद में किसी एकार्थक शब्द का दुबारा प्रयोग ही इस दोष का मूल है। (१) इन म्लान मलिन अधरों पर स्थिर रही न स्मिति की रेखा । (२) देखेगा वह वदन चन्द्र फिर क्या बेचारा चूमेगा प्रणयोष्ण दीर्घ चुम्बन के द्वारा। इनमें 'मलिन' और 'चूमेगा' के रहते म्लान और 'चुम्बन' के पुनः प्रयोग से कथितपद दोष है । ऐसे ही 'यह पिथ्या है बात असत्य', 'या सभी शोभन मनोरम' आदि उदाहरण हैं । इसे पुनरुक्तदोष भी कहते हैं। टिप्पणी-लाटानुपाख, कारणमाला और पुनरुक्तवदाभास अलंकारों में तथा अर्थान्तरसंक्रमित ध्वनि में कथित पद दोष न रहकर गुण हो जाता है। २१. पतत्प्रकर्ष-पद्य में किसी प्रकार के भी प्रकर्ष को उठाकर उसे न सम्हालना पतत्प्रकर्ष दोष है। शिव-शिर मालति-माल भगीरथ-नपति-पुन्य-फल, ऐरावत-गज-गिरि-पवि-हिम नग-कण्ठ-हार, फल, सगर-सुअन-सठ-सहस, परस जलपात्र उधारन, अगनित धारा-रूप धारि सागर संचारन । प्रारम्भ के तीन चरणों में समास का जो प्रकर्ष दिखलाया गया वह अन्त तक नहीं रहा। दूसरी बात यह कि गंगा के माहात्म्य का जो प्रकर्ष प्रारंभ में दिखलाया, उसे भी अन्तिम चरण तक आते-आते गिरा दिया। टिप्पणी-एक ही पद्य में विषयान्तर होने से पतत्प्रकर्ष दोष नहीं रह जाता। कह मिषी कहें ऊख रस नहिं पीयूष समान । कलाकंद कतरा अधिक, तो अधरा रस पान । अधर रस को मिश्री से उत्कृष्ट बताने के बाद ऊख रस कहना और पीयूष से उत्कृष्ट बताने के बाद कलाकंद के कतरे के समान कहना उत्कर्ष का पतन वा ह्रास है । यह वर्णन-दोष भी है। २२. समाप्तपुनरात्त-वक्तव्य विषय के वाक्य के समाप्त होने पर भी पुनः तत्सम्बन्धी वाक्य का प्रयोग करना पुनराच दोष है। होते हम हृदय किसी के विरहाकुल जो, होते हम आंसू किसी प्रेमी के नयन में। दुख वलितों में हम आशा की किरन होते, . होते पछतावा अविवेकियों के मन में। मानते विधाता का बड़ा ही उपकार हम, होते गांठ के पन कहीं जो बीन जन में।