पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३९०

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शब्द-दोष ३०७ ग्राम्य-दोष वहां गुण हो जाता है, जहां कोई गवई-गांव का निवासी अपनी भणित भंगि से अपनी मनोवृत्ति प्रकट करता है। ११. नेयाथ-लक्षण वृत्ति का असंगत होना ही यह दोष है। बड़े मधुर हैं प्रेम-सन्म से निकले वाक्य तुम्हारे यहाँ 'प्रेम सद्म' का अर्थ-बाध होने से लक्षण द्वारा मुख अर्थ होता है। ऐसा होने से ही तुम्हारे मुख से निकले वाक्य बड़े मधुर हैं, यह अर्थ हो सकता है । पर, लक्षणा रूड़ि वा प्रयोजन से ही होती है। यहाँ न तो रूढ़ि है और न प्रयोजन हो। १२. क्लिष्ट-जहां प्रयुक्त शब्द का अर्थ-ज्ञान बड़ी कठिनता से हो वहां यह दोष होता है। तर रिपु-रिपु-घर देख के विरहिन तिय अकुलात । वृक्ष का शत्रु अग्नि है और उसका शत्रु जल । उनको धारण करनेवाले अर्थात् मेघ को देखकर के, यह अर्थ कष्ट-कल्पना से ज्ञात होता है। शब्दार्थ-बोध में विलम्ब होना क्लिष्ट दोष का विषय है। १३. संदिग्ध-जहाँ ऐसे शब्द का प्रयोग हो, जिससे वांछित और अवांछित दोनों प्रकार के अर्थों का बोध हों। एक मधुर वर्षा मधु गति से बरस गयी मेरे अम्बर में । यहाँ 'अम्बर' शब्द से 'श्राकाश' और 'वस्त्र' दोनों अर्थ निकलने से यह संदेहास्पद है कि कहाँ वर्षा हुई। टिप्पणी- व्याजस्तुति अलंकार आदि में वाच्यार्थ के महत्व से संदिग्ध दोष नहीं रह जाता। १४. अप्रतीत- जहाँ ऐसे शब्द का प्रयोग हो, जो किसी शास्त्र में प्रसिद्ध होने पर भी लोक-व्यवहार में अप्रसिद्ध हो। कैसे ऐसे जीव ग्रहण या ज्ञानहिं करिहै। अष्टमार्ग द्वावस निदान कैसे चित्त धरिहै । इसमें प्रयुक्त 'मार्ग' और 'निदान' बौद्ध आगम के पारिभाषिक अर्थों के बोधक हैं, पर लोक-व्यवहार में आनेवाले 'माग', 'निदान' शब्दो से इसका कोई संबंध नहीं। अतः यहाँ अप्रतीत दोष है। यह बौद्ध-शास्त्र से अनभिज्ञ व्यक्ति को अर्थोपरिस्थिति में बाधक होगा। टिप्पणी-अप्रयुक्त और अप्रतीत दोषों में अन्तर यह है कि पहाते में ज्ञाता, अज्ञाता, दोनों को अर्थ-प्रतीति नहीं होती, पर दूसरे में ज्ञाता को अर्थ की प्रतीति हो जाती है। यदि वक्ता और श्रोता दोनों शास्त्रज्ञ हुए तो वहां यह दोष नहीं माना जाता ।