पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३७२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दृश्य काव्य ( नाटक) २८९ तो औरों को एक कैसे कही जा सकती है ? इससे कविता में जो विशेषताएँ देखी जाती हैं वे मानव-स्वभाव-सुलभ ही हैं। कला अभ्यासलब्ध नैपुण्य है; पर भावों के विषय में यह बात नहीं है । भाव स्वतः स्फूत्त होते हैं। जिस प्रकार काव्य की आत्मा रस-रूप भाव है उसी प्रकार कला का अन्तःकरण कल्पना है और कल्पना काव्य का प्रमुख आधार है । स्वस्थ आत्मा के लिए स्वस्थ शरीर को स्वस्थता का ध्यान रखना आवश्यक हो जाता है। अभि- व्यक्ति को मार्मिकता के लिए बाहरी उपादानों की जरूरत पड़ती है। साहित्य के इन दोनों पक्षों में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। इनके समुचित संयोग और सामञ्जस्य से ही साहित्य का सच्चा स्वरूप व्यक्त होता है। शरीर से आत्मा सभी प्रकार श्रेष्ठ है। इसी प्रकार काव्य में कलापक्ष से भाव- पक्ष का महत्त्व अधिक है । भाव मनुष्य के मन का रसायन है । किन्तु, कल्पना का बिना सहारा लिये भावो की अभिव्यक्ति की संभावना होते भी कलापक्ष कम महत्त्व- पूर्ण नहीं । प्राण का आधार शरीर है । देह से प्राण का ऐसा सम्बन्ध नहीं कि हम उसे दूसरे आधार में डाल दे । इसलिए, देह और प्राण सदा एकात्म ही रहते है। इसी तरह काव्य में भाव और कला एकात्म है। काव्य कहने से भाव और उसे व्यक्त करने की निपुणता दोनों का समान रूप से बोध होता है। काव्य का कला- पक्ष ही लेखक का कृतित्व है। भाव तो चिरन्तन हैं और वे न तो मौलिक होते है और न किसी के अपने । उन्हें व्यक्त करने को निपुणता ही कवि की अपनी वस्तु है। इसीसे काव्य के कलापक्ष के महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। ___यहाँ कला केवल काव्य-गुणों के लिए हो प्रयुक्त हुई है, कला के व्यापक रूप में नहीं। चौदहवीं छाया दृश्य काव्य ( नाटक) दृश्य काव्य को रूपक कहते हैं। साधारणतः इसके लिए नाटक शब्द का व्यवहार होता है। यह अँगरेजी ड्रामा ( Drama) का पर्यायवाचक मान लिया गया है। अभिनेता अर्थात् अभिनय करनेवाले ( Actors) नाटक के पात्रों के रूप धारण करके उनके समान ही सब व्यापार करते हैं, जिससे दर्शकों को तत्तुल्य हो स्वाभाविक ज्ञात होते हैं। इसीसे अभिनय को अवस्था का अनुकरण या नाट्य करना कहते हैं-'अवस्थानुकृतिर्नाट्यम् ।' २४