पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३४०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ग्यारहवीं छाया गुणीभूत व्यंग्य वाच्य की अपेक्षा गौण व्यंग्य को गुणीभूत व्यंग्य कहते हैं । गौण का अर्थ है अप्रधान- मुख्य न होना और गुणीभूत का अर्थ है अप्रधान बन जाना अर्थात् वाच्यार्थं से अधिक चमत्कारक न होना। अभिप्राय यह कि जहाँ व्यंग्य अर्थ वाच्य अर्थ से उत्तम न हो अर्थात् वाच्य अर्थ के समान ही हो या उससे न्यून हो वहाँ गुणीभून व्यंग्य होता है।' प्राचीन अचार्यों ने सामान्यतः गुणीभूत होने के आठ कारण निर्धारित किये हैं। इससे इसके बाठ भेद होते हैं-१ अगूढ व्यग्य, २ अपरांग व्यंग्य, ३ वाच्य- सिद्ध्यङ्ग व्यंग्य, ४ अस्फुट व्यंग्य, ५ संदिग्ध-प्राधान्य व्यंग्य, ६ तुल्य-प्राधान्य व्यंग्य, ७ काकाक्षित व्यंग्य और ८ असुन्दर व्यंग्य । १ अगूढ व्यंग्य . जो व्यंग्य वाच्यार्थ के समान स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है वह अगूढ़ व्यंग्य कहलाता है। पुत्रवती युवती जग सोई। रघुबर भगत जासु सुत होई ॥-तुलसी जिसका पुत्र रामभक्त है वही युक्ती पुत्रवती है। यहाँ अर्थ-बाधा है ; क्योंकि ऐसी युवतियाँ पुत्रवती भी हैं, जिनके पुत्र रामभक्त नहीं हैं। अत:, लक्ष्याथ होता है उन युवतियों का पुत्रवती होना न होने के बराबर है, जिनके पुत्र रामभक्त नहीं हैं । व्यंग्यायं है रामभक्त-पुत्रवाली युवती जगत में प्रशंसनीय है। यह व्यंग्य वाच्यार्थ हो के ऐसा स्पष्ट है और वाच्य का अर्थान्तर में संक्रमण है। धनिकों के घोड़ों पर इलें पड़ती हैं हम कड़ी ठंढ में वस्त्रहीन रह जाते । वर्षा में उनके श्वान छोह में सोते हम गीले घर में जगकर रात बिताते ।-मिलिन्द इस पंद्य से यह व्यंग्याथं निकलता है कि कोई शोषितों के सुख-दुख की चिन्ता नहीं करता। उनको दशा जानवरों से भी गयी बीती है। यह व्यंग्य अर्थ- शक्ति से ही निकलता है और वाच्यार्य हो की तरह अगढ़ है- स्पष्ट है। २ अपरांग व्यंग्य व्यंग्य-अर्थ किसी अपर (दूसरे) अर्थ का अंग हो जाता है वह अपरांग व्यंग्य कहलाता है। परत या भूतम्यगय पाच्यावतुतमे ईन्ये ।-बादिस्यदर्पण