पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३३९

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ध्वनियों का संकर और संष्टि परिचय इतना इतिहास यही, उमड़ी कल थी मिट आज चली। मैं नीर-भरी दुख की बदली ॥ -म० दे० वर्मा हूँ तो मैं नीर-भरी दुख की बदली, पर बदली का-सा मेरा भाग्य कहाँ ! बदली को विस्तृत नभ में छा जाने का अवसर भी मिलता है, पर मुझे तो इस घर के कोने में ही बैठकर अपने दुःख के दिन काटने पड़ते हैं। इस प्रकार उपमान से उपमेय को न्यूनता बताने से व्यतिरेक अलंकार स्पष्ट है। यहाँ बदली और विरहिणी की समानता न वाच्य है न लक्ष्य, अपितु साफ व्यंग्य है। बदली सही-सही आज उमड़ती और कल मिटती है ; नीर-भरी तो है ही, पर विरहिणौ ठीक वैसी नहीं। भले ही वह क्षणभर के लिए उल्लसित होकर फिर उदासीन हो जाती हो और आँसुओं से डबडबायी रहती हो। अतः, समता को व्यञ्जना ही है जो संलक्ष्यक्रम है। इसी प्रकार समस्त गीत के वाच्यार्थ से करुण रस की भी व्यञ्जना होती है, जो असंलक्ष्यक्रम है । अतः, एक व्यंजकानुप्रवेश का उदाहरण है। ध्वनियों को ससृष्टि- उपर कहा गया है कि बिल्कुल आपस में मिल कर तादात्म्य-जैसा स्थापित कर लेनेवाली ध्वनियों कर संकर होता है और बिल्कुल भिन्न-भिन्न प्रतीत होनेवाली एक से अधिक ध्वनियों की संसृष्टि होती है। इसलिए, अब अवसर संगति से संसृष्टि का वर्णन किया जाता है। जैसे, मचलमवलकर उत्कण्ठा ने छोड़ा नीरवता का साथ । विकट प्रतीक्षा ने धीरे से कहा, निठुर हो तुम तो नाथ ॥ नाव ब्रह्म की चिर गासिका मेरी इच्छा हुई हताश, बहकर उस निस्तब्ध वायु में चला गया मेरा निःश्वास ।-नवीन १. उरएठा का मचल मचलकर नौरवता का साथ छोड़ना सम्भव नहीं। इससे लक्षणा द्वारा उत्कंठा को तीव्रता से उत्कंठित का चुत होकर बोल उठना अर्थ हुआ। प्रयोजन व्यंग्य हुश्रा-उत्कंठा का सीमा से पार हो जाना। २. प्रतीक्षा का धीरे से कहना सम्भव नहीं । अतः, लक्षण द्वारा अर्थ हुश्रा- प्रतीक्षक वा अधीर होकर उपालम्भ देना व्यंग्य है प्रतीक्षा की असह्यता। ३. इच्छा के हताश होने का लक्षणा द्वारा अर्थ हुआ इच्छुक की आशाओं पर पानी फिर जाना । व्यग्य है इच्छा और आशा को अरुन्तुद असफलता। ४. निश्वास के स्तब्ध वायु में बह जाने का लक्षणा द्वारा अर्थ हुश्रा-सर्द आहों का बेकार होना, कुछ असर न डालना । रंग्याथ है आश्वासन या समवेदना का निरान्त श्रभाव। इन चारों ध्वनियों में से कोई किसी का भंग नहीं। ये पृथक-पृथक प्रतीत होती।