पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३३६

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२५२ काव्यदल है कि वहाँ केवल कवि-कल्पित वस्तु या अलंकार से अलंकार या वस्तु को धनि होती है। यहाँ कवि-कल्पित-पात्र को प्रौढ़ उक्त से । १ वाक्यगत कविनिबद्धपात्रप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु से वस्तु व्यंग्य घूम धुआरे काजर कारे हम ही बिकरारे बादर । मदनराज के वीर बहादुर पावन के उड़ते फणधर ॥-पन्त यहाँ बादल के 'मदनराज के वीर बहादुर', 'पावस के उड़ते फनधर' आदि वाक्य कविनिबद्धपात्रप्रौढोक्ति सिद्ध हैं। इस कल्पित वस्तुरूप वाच्यार्थ से बादलों का अपनेको 'कमोद्दीपक', 'वियोगियों को 'संतापकारक' कहना आदि वस्तु रूप व्यंग्य का बोध हो रहा है । उक्त व्यंग्याथ वाक्यों से निकलता है । इससे उक्त मेद का यह उदाहरण है। मैं न बुझूगी, अमर दीप को ज्वाला हूँ, वाला हूँ। पल भर किसी कंठ से लाकर छिन्न हुई मा ना हूँ। -जानकीवल्लभ शास्त्री यहाँ कवि-निबद्ध-पात्र 'विधवा' अपने को अमर दीप को ज्वाला हूँ, इसलिए कभी बुझ नहीं सकती' कह रही है । इस वस्तु रूप उक्ति से 'निरन्तर दुख-संताप से जलनेवाली हूँ इस वस्तुरूप व्यंग्य का बोध होता है। अतः, यह उदाहरण वाक्य. गत-उपयुक्त भेद का ही है। २ पदगत कविनिबद्धपात्रप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध वस्तु से अलंकार व्यंग्य दियो अरघ नीचे चलो संकट भान जाइ। सुचती ह ओरै सबै ससिहि बिलोक आइ॥-विधास अखो नायिका से कहती है कि तुम अब नीचे चलो, जिससे निश्चिन्त हो अन्य सभी स्त्रियाँ चन्द्रमा को देखें, क्योंकि वे समझ नहीं पा रही हैं कि असल में चन्द्रमा कौन है-तुम्हारा मुख या उदित चन्द्रमा । यहाँ नायिका के मुख में चन्द्रमा के आरोप से रूपक अलंकार धनित है । ससि में होने से पदगत है । २ वाक्यगत कविनिबद्धपात्र प्रौढोक्तिसिद्ध अलंकार से वस्तु व्यंग्य मरबै को साहस कियो, बढ़ी बिरह की पीर । दौरति है समुहै ससी, सरसिज, सुरमि-समीर ॥-बिहारी यहाँ कवि-निबद्ध पात्र दूती है और उसका यह कहना कि विरहाधिक्य से मरने के लिए वह सरसिज, ससी, तथा सुरभि-समौर के सम्मुख दौड़ती है, यह प्रौढोकि-मात्र से सिद्ध है । प्रौदोक्ति समस्त वाक्य में है। मरने के लिए उक्त वस्तुओं की ओर दौड़ पड़ना प्रकृति-विरुद्ध है । इससे यहाँ विचित्र अलंकार है। इससे नायिका के विरह का सन्तापाधिक्य वस्तु घनित है । अतः, वाक्यगत अलंकार में यहाँ बस्तुध्वनि है।