पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३२२

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भावाभास २३७ यहाँ प्रियतम के प्रति नायिका का मान ( गवं ) प्रकट है । कुक्कुट को धनि सुनने से औत्सुक्य भाव के उदित होने पर पहला भाव ( गर्व ) शान्त हो गया है । इस भावशान्ति में ही काव्य का पूर्ण चमत्कार है । अतः, यह भावशान्ति है । भावशान्ति जहाँ एक भाव को शान्ति के बाद दूसरे भाव का उदय हो और उदय हुए भावों में ही चमत्कार का पर्यवसान हो वहाँ भावोदय होता है। हाथ जोड़ बोला साथ नयन महीप यों- मातृभूमि इस तुच्छ जन को क्षमा करो। आज तक खेयी तरी मैने पापसिन्धु में, अब खेऊगा उसे धार में कृपाण की।-आर्यावतं, जयचन्द्र की इस उक्ति में विषाद भाव की शान्ति है और उत्साह भाव का उदय है । विषाद के व्यंजक 'साश्रुनयन' और 'क्षमा करो' पद है । उत्साह अन्तिम चरण से व्यक्त है। भावसन्धि जहाँ एक साथ तुल्यबल एवं समचमत्कारकारक दो भावों की सन्धि हो, वहाँ भावसन्धि होती है । जैसे- उत रणभेरी बजत इत रगमहल के रंग। अभिमन्यु मन ठिठकिगो जस उतंग नम चंग ॥-प्राचीन यहाँ भी अभिमन्यु की रण-यात्रा के समय एक ओर रंगमहल को रंग- रेलियों का स्मरण और दूसरी ओर रणभेरी बजने का उत्साह-ये दोनों भाव समान रूप से चमत्कारक हैं। भावसबलता जहाँ एक के बाद दूसरे और फिर तीसरे-इसी प्रकार कई समान चमत्कारक भावों का सम्मेलन हो, वहाँ भावसबलता होती है। जैसे- सीताहरण के बाद रामचन्द्र ने वियोग में जो प्रलाप किया है वह इसका उदाहरण है। जैसे- 'मन मन सीता आश्रम नाहीं।'-शका 'हा गुणखानि जानकी सीता।-विषाद 'सुन जानको तोहि बिनु आज हर्षे सकल पाई जनु राजू ॥'-वितर्क या मलाप