पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३२०

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१ देवता-विषयक रतिभाव अबको राखि लेह भगवान । हम अनाथ बैठे दम डरिया पारिधि साधे बान । याके डर भागन चाहत हो ऊपर दुक्यो सचान । दुबों भांति दुख भयो आनि यह कौन उबारे प्रान ।। सुमिरत ही अहि डस्यो पारिधी सर छूटे संधान । 'सूरवास' सर लग्यो सचानहि जै जै कृपानिधान ।। यहां भगवान् बालम्बन हैं, व्याध का वाणसंधान और ऊपर बाज का उड़ना उद्दीपन हैं और स्मरण अनुभाव तथा चिन्ता, विषाद, औत्सुक्य आदि संचारी है। यहाँ भगवद्विषयक जो अनुराग वनित होता है वह देवविषयक रति-भाव या भक्ति कहा जाता है, भक्त संकटापन्न होकर भगवान को पुकारा करता है, पर भगवान् प्रत्यक्ष रूप में कुछ नहीं करते। ___ अब मातृभूमि-विषयक रति भी देव विषयक रति में सम्मिलित मानी जाती है । एक उदाहरण- वन्दना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो। बन्दिनी माँ को न भूलो राग में जब मत्त झूलो अर्चना के रत्न-कण में एक कण मेरा मिला लो। जब हृदय का तार बोले शृंखला के बन्द खोले हो जहाँ बलि सीस अगनित, एक सिर मेरा मिला लो ॥ -सोहनलाल द्विवेदी यहाँ पालम्बन भारतमाता हैं। उसका बन्धन उद्दीपन विभाव है। वक्ता का अनुनय और कथन अनुभाव हैं। हर्ष, औत्सुक्य आदि संचारी हैं। इनसे भारत- माता के प्रति कवि का रति-भाव परिपुष्ट होकर व्यजित होता है। गुरुविषयक रतिभाव बन्दौं गुरु पद पदुम परागा, सुरुचि सुबास सरस अनुरागा। यहां पराग को वन्दना से गुरुविषयक रति-भाव अर्थात् श्रद्धा या पूज्य भाव को ध्वनि होती है। राजविषयक रतिभाव बेद राख विदित, पुरान राखे सार युत, रामनाम राख्यो अति रसना सुघर में।