२२७ भक्तिरस-सामग्री अक्षत पुलकित रोम मधुर मेरी पीड़ा का चन्दन रे। स्नेह भरा जलता हैं झिलमिल मेरा यह दीपक मन रे । मेरे दुग के तारक में नव उत्पल का उन्मीलन रे । धूप बने उड़ते रहते हैं प्रतिपल मेरे स्पन्दन रे। प्रिये प्रिये जपते अधर ताल देता पलकों का नर्तन रे ।-महादेवी यह भक्ति रहस्यवादियों की है। इसमें स्थूल वस्तुओं से स्थूल पूजा नहीं; पर पूजा की सारी सामग्री प्रस्तुत है। साकार की पूजा नहीं, निराकार को है। प्रिय सम्बोधन परमात्मा का है । पूजा के वाह्य उपकरणों को शरीर में ही दिखलाना मीरा की-सी अनन्य भक्ति और सर्वस्व-समर्पण का भाव है। अन्तःकरण की पूजा के समक्ष वाह्य पूजा वा अर्चन तुच्छ है । यहाँ प्रिय पालैबन, प्रिय की अनुपमता, अव्यक्तता आदि गुण उद्दीपन, प्रिय का अभिनन्दन करना अनुभाव तथा श्रौत्सुक्य, हर्ष, उत्साह, गर्व, मति आदि संचारी है, जिनसे भक्तिरस ध्वनित होता है। राम नाम मणि दीप घर जीभ देहरी द्वार । तुलसी भीतर बाहिरो जो चाहसि उजियार ॥ राम नाम बालबन, उज्ज्वलता की आकांक्षा उद्दीपन, रामनामस्मरण अनुभाव और मति, घृति उत्कण्ठा आदि संचारी हैं। ढारै नैन नीर मा संवार सांस संकित सो . जाहि जोहि कमला उतार्यो कर आरते । कहै 'रतनाकर' सुरकि गज साहस के भाष्यो हरै हेरि भाव आरत अपारते । तन रहिबे को सुख सब बहि जैहै हाय, एक बूद आँस. मैं तिहारे जो विचारते । एक को कहा है कोटि करूमानिधान प्रान बारते सचंन पै न तुमको पुकारते ॥ भगवान के प्रति गजराज को यह उक्ति है। भक्त अपने भगवान के रंचमात्र के कष्ट से अकुला उठता है । इसमें भगवान श्रावन, आँसू की बूंद, भगवान का कष्ट उठाना आदि उद्दीपन, गजराज का करोडों प्राण निछावर करना, न पुकारने की बात कहना अनुभाव और मति, विषाद आदि सचारी हैं। ___यहां यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि दयावीर, धर्मवीर, भक्ति वा देवविषयक रति में कुछ-न-कुछ किसी-न-किसी प्रकार के अहंकार का लेश रहता है। पर शान्त रस सब प्रकार के अहंकारों से शून्य होता है । यही इनमें अन्तर है।
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