करुण रस की सुख-दुःखात्मकता २०५ कुटुम्बकम्' है। कवि कहता है-'जीव मन के जितने प्रिय सम्बन्धों को जोड़ता है उतने शोकशंकु उसके हृदय में अंकित होते हैं।" यही शोक करुण रस का स्थायी भाव है। इष्टनाश आदि के कारण चित्त को विकलता को शोकर कहते हैं। यहाँ आदि से नाश के साथ विरह, विपत, दुराशंका का भी ग्रहण है । कहने का भाव यह कि जिनके साथ, चाहे वे मृग, शुक आदि हों या लता, वृक्ष आदि हों, मन का प्रिय सम्बन्ध बना हुआ है। उनके नाश होने, वियुक्त होने, विपद में पड़ने से मन में कष्ट के काटे चुमें, वही शोक है। अभिलाषाओं, इच्छा-आकांक्षाओं तथा प्रिय प्रवृत्तियों का विफल होना भी शोकजनक होता है। कह पाये हैं कि शोक प्राथमिक भावना नहीं है। मनुष्य को प्रोति, पालनवृत्ति, वात्सल्य आदि की सहचर भावना जब इष्ट-वियोग आदि से विकल हो उठती है या उसके प्रतिकार में असमर्थ हो जाती है तब शोक उत्पन्न होता है। केवल प्रीतिमात्र शोक को उत्पादिका नहीं है । जिससे प्रेम नही, उसके दुःख शोक से हमें क्या है यह शोक प्रियवस्तुमूलक होने के कारण आज स्थायी नही, संचारी माना जाता है। इसको स्थायी मानने का कारण प्रास्वाद की उत्कटता और सहानुभूति की स्वतंत्र भावना ही हो सकती है। रति-वात्सल्य आदि की भावना भी इसके स्थायित्व में सहायक होती है, अन्यथा इसमें बंचारी का ही भाव झलकता है। यदि प्रिय-संबंधी मात्र तक ही परिमित न रख करके अर्थात् माता, पिता, भ्राता, भगिनी, पुत्र, पति, बन्धु, परिजन आदि के वियोग तक में ही श्रावद्ध न करके करुण का रूप सहानुभूति-मूलक मान लें तो ससौम न होकर यह असीम हो जायेगा। केवल दलित-पीड़ित तक ही नहीं, बल्कि प्राणिमात्र और प्रकृतिमात्र तक करुण का विस्तृत क्षेत्र हो जा+-जैसा कि ऊपर उदाहरण दिया गया है तो शोक को प्राथमिक भावना का भी पद प्राप्त हो सकता है। चौदहवीं छाया करुण रस की सुख-दुःखा कता दुःखान्त-साहित्य से प्रानन्द क्यों होता है, वह एक प्रश्न है। इसके समाधान में हम केवल यही नहीं कहना चाहते कि करुण आदि रस में भी जो आनन्द मिलता है, उसमें सहदयो का अनुभव ही प्रमाण है या यदि दुख होता तो करुणप्रधान १ यावतः कुरुते जन्तुः सम्बन्धान् मनसः प्रिगान् । तावयतोऽस्त बिलिख्यन्ते हृदये शोकरांकनः। २ नाशाविमिश्चेतो क्लव्य शोकरापमान । सा०६०
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