पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२८९

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करंण रखे उस एक ही अभिमन्यु से यों युद्ध जिसने भी किया, मारा गया अथवा समर से विमुख होकर ही जिया। जिस भांति विद्य दाम से होती सुशोमित धनघटा, सर्वत्र छिटकाने लगा वह समर में शस्त्रच्छटा । तब कर्ण द्रोणाचार्य से साश्चर्य यों कहने लगा, आचार्य देखो तो नया यह सिंह सोते से जगा ।-गुप्त इसमें अभिमन्यु बालंबन, अनेक महारथियों से एक साथ युद्ध करना उद्दीपन, कणं आदि का साश्चयं देखना अनुभाव और शंका, चिन्ता, वितकं आदि संचारी हैं। इनसे परिपुष्ट अाश्चर्ग स्थायी भाव रस-रूप में परिणत होकर व्यञ्जित होता है । इसमें जो आश्चयं शब्द है उससे स्वशब्दवाच्य-दोष नहीं लग सकता, क्योंकि इसका सम्बन्ध द्रष्टा के साथ है। अभिनन्यु के अलौकिक कृत्य मे ही चमत्कार है, जिससे अद्भुत रस यहाँ व्यङ्ग है। रिस करि लेजै लै के पूते बाँधिबो को लगी, आवत न पूरी बोली कैसो यह छौना है। देखि देखि देख फिर खोलि के लपेटा एक, बाँचन लगी तो बहू क्योहूँ कौं बध्योना है। 'वाल' कवि जसुदा चकित यौँ उचारि रही, आली यह भेद कछू पर्यो तुझको ना है। यही देवता है किधौँ याके संग देवता है, या किहूँ सखी ने करि दीन्ह्यो कछु टोना है। कृष्ण के बंधनकाल में रस्सियों का छोटा पड़ना आलंबन विभाव है, कृष्णा का न बँधना उद्दीपन विभाव है, संभ्रम आदि अनुभाव है और वितक, चिन्ता, शंका अादि संचारी भाव हैं। इनके द्वारा विस्मय स्थायी भाव अद्भुत रस में परिणत होता है। तेरहवीं छाया करुण रस कह आये हैं कि भवभूति एक करुण रस को हो मानते हैं। अन्य रस पानी के बुलबुले-जैसे हैं। जल जैसा करुण ही सबका मूल है। कारण यह कि करुण का संवेदन बड़ा तीव्र होता है और उसकी मात्रा सुख की अपेक्षा अधिक होती है। एक दिन का दुख सौ दियों के सुख पर पानी फेर देता है।