पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२६७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

संभोग शृङ्गार २८१ स्थायी भाव शृङ्गार का स्थायी भाव ति है । किसी नारी के प्रति किसी पुरुष का चित्त चंचल हो उठे और वह उसके प्रति अपनी कामना प्रकट करे और वह कामना वा आकर्षण साधारणीकृत हो भी तो उसे रति कहना ठीक नहीं। यह तो रत्याभास है। जब स्त्री और पुरुष परस्पर अपने को एकात्म-भाव से ग्रहण करते है ; अर्थात् वे श्रादर्श रूप से सम्बद्ध होते हैं तभी उनके परस्पर प्रकाशित भावो के श्रास्वाद को यथार्थ रति कहते है। ___ मम्मट भट्ट देवता, मुनि, गुरु, नृप, पुत्र आदि के विषय में उत्पन्न होनेवाली रति को भाव कहते हैं-रतिर्देवादिविषया। वे कान्ता-विषयक रति को ही शृङ्गार मानते हैं। नीचे के लक्षण में इसोको स्पष्टता है। नायिका और नायक के पारस्परिक प्रेमभाव को रति कहते हैं। शृङ्गार रस संभोग और विप्रलम्भ के भेद से दो प्रकार का होता है । तीसरी छाया संभोग शृङ्गार जहाँ नायक और नायिका का संयोगावस्था में पारस्परिक रति रहती है वहाँ संभोग शृङ्गार होता है। वहाँ संयोग का अर्थ संभोग- सुख की प्राप्ति है। _____ संयोग वा नायक और नायिका को एकत्रस्थिति में भी विप्रलभ वा वियोग का वर्णन होता है। उदाहरणार्थ मान की अवस्था को ले लीजिये । वियोग में भी स्वप्नसमागम होने पर संयोग ही माना गया है । संयोग की एक वह अवस्था भी है, जिसमें नायक-नायिका को परस्पर रति तो होती है, पर संभोग-सुख की प्राप्ति नहीं होती । इसको संभोग में सम्मिलित करना उचित नहीं। नायक-नायिका के पारस्परिक व्यवहार-भेद से संभोग शृङ्गार के अनेक मेद होते हैं। पर यही एक भेद माना गया और सभी का इसी में अतर्भाव हो जाता है। किन्नरियों-सा रूप लिये मदिरा की बूदे लाल, टूट रहे कितने मेरे चुम्बन के तारे बाल । उष्ण रक्त में थिरक रहीं तुम ज्वालागिरि-सी लीन, लोलुप अंगों में लय होकर आज बनी मन मीन ।-अंचल १ एकैव ह्याप्तौ तावती रतियंत्र अन्योन्यसंविदैकवियोगो न भवति । २ नोरन्योन्यविषया स्थायिनाच्छा रति स्मृता । -ससुधाकर