पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२६६

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१८० काव्यदर्पण आलंबन विभाव नव रस में शृङ्गार रस सिरे कहत सब कोइ । सरस नायिका नायकहिं आलंबित है होइ ॥--पद्माकर यह रस उत्तम प्रकृति अर्थात् श्रेष्ठ नायक-नायिका को, चाहे राजा, मजूर, किसान या अन्य कोई हो, आलंबन या आश्रय के रूप में लेकर हो प्रायः स्वरूप- योग्यता को प्राप्त करता है। उद्दीपन विभाव सखा, सखी, दूतो, चंद्र, चाँदनी, ऋतु, उपवन श्रादि इसके उद्दीपन हैं। सखी, सखा तथा दूती को संस्कृत के प्राचार्यों ने शृङ्गार रस में नायक-नायिका के सहायक नर्म सचिव माना है ; कितु हिन्दी के प्राचार्यों ने इनको गणना उद्दीपन विभाव में की है। इनके उद्दीपन विभाव मानने का कारण यह जान पड़ता है कि सखा, सखी या दूतो के दर्शन से नायिकागत वा नायकगत अनुराग उद्दीपित होता है। भरत मुनि के वाक्य में प्रियजन शब्द के आने से सम्भव है, हिन्दीवालों ने इन्हें उद्दीपन मे मान लिया हो । नायक-नायिका की वेशभूषा, चेष्टा आदि पात्रगत तथा षड्ऋतु, नदीतट, चांदनी, चित्र, उपवन, कविता, मधुर संगीत, मादक वाद्य, पक्षियों का कलरव आदि शृङ्गार रस के वहिर्गत उद्दीपन हैं। __ अनुभाव प्रेमपूर्ण पालाप, स्नेहस्निग्ध परस्परावलोकन, आलिंगन, चुम्बन, रोमांच, स्वेद, कम्प, नायिका के भ्र भंग आदि अनेक अनुभाव हैं, जो कायिक, वाचिक और मानसिक होते हैं। __संचारी भाव उग्रता, मरण और जुगुप्सा को छोड़कर उत्सुकता, लज्जा, जड़ता, चपलता, हर्ष, मोह, चिंता आदि सभी भाव संयोग शृङ्गार रस के संचारी भाव होते है। ____ संयोग या संभोग शृङ्गार में उन्माद, चिंता, असूया, मूर्छा, अपस्मार आदि नहीं होते ; क्योंकि उनमें आनन्द ही आनन्द है। वहां तो हर्ष, चपलता, बौड़ा, गर्व, मद आदि ही होंगे। वैसे ही विप्रलंभ शृङ्गार में आनन्दोत्पादक संचारी भाव नहीं होते । वहाँ तो संताप, कृशता, प्रलाप, निद्रा आदि हो अधिकतर होते हैं । इससे चिंता, व्याधि, उन्माद, अपस्मार आदि संचारी भावों का प्रादुर्भाव होना स्वाभाविक है । विप्रलम्भ में संयोग से भिन्न अनुभाव भी होते हैं। आलिगन, अवलोकन आदि विप्रलंभ में संभव नहीं। १ ऋतुमाल्यालंकारः प्रियजनगांधर्वकाव्यसेवाभिः। . . उपवनगमनविहारः गृहाररसः समुद्भवति || -नाट्यशास्त्र