पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२६३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चौथा प्रकाश एकादश रस पहली छाया शृङ्गार रस नौ रसों में शृङ्गार रस को प्रधानता है । भरत श्रादि आचार्यों ने इसकी प्रथम गणना की है। इसे आदि रस भी कहते हैं और रसराज भो। कारण यह है कि इसकी तीव्रता और प्रभावशालिता सब रसों से बढ़ी-चढ़ी है । दूसरी बात यह कि कामविकार सर्वजाति-सुलभ-हृदयाकर्षक तथा अत्यन्त स्वाभाविक है। इस रख के प्रभाव से महामुनियों के मन भी मचल गये हैं। उनका श्रासन डगमगा गया है। इसोसे प्राचार्य कहते हैं कि नियमतः संसारियों को शृङ्गार रस का अनुभव होता है। अपनी कमनीयता के कारण यह सब रसों मे प्रधान है। नव रस सब संसार में नव रस में संसार। नव रस सार सिंगार रस युगलसार सिंगार ॥-प्राचीन रुद्रट कहते हैं कि शृङ्गार रस आबाल-वृद्ध में व्याप्त है। रसों में कोई ऐसा दूसरा रस नही जो इसकी सरसता को प्राप्त कर सके। सम्यक् रूप से इस रस को रचना करनी चाहिये । शृङ्गार रस से होन काव्य नीरस होता है। देवजी तो यहाँ तक कहते हैं- __नव रसनि मुख्य सिंगार जहँ उपजत बिनसत सकल रस । ज्यों सूक्ष्म स्थूल कारन प्रगट होत महा कारन विवश ॥ शृङ्गार के दो प्रधान रूप हैं-एक लौकिक और दूसरा अलौकिक । लौकिक दाम्पत्य-सम्बन्ध रूप है। इसका एक उत्कृष्ट रूप है और दूसरा निकृष्ट रूप है। १ उत्कृष्ट रूप- सावनी तीज सुहावनी को सजि सू हैं दुकूल सबै सुख साधा। त्यों 'पदमाकर' देखै बनै न बन कहते अनुराग अगाषा ॥ १. शृङ्गाररसो हि संसारिणां नियमेन अनुभवविषगत्यात् सर्वरसेयः कमनीयता प्रधानभूतः । -ध्वन्यालोक २. अनुसरति रसानां रस्यतामस्य नान्यः, सवलमिदमनेन व्याप्तमावालवृद्धम् । तदिति विरंचनीयः सम्यगेषः प्रयत्नात् भवति विरसमेवानेन हीनं हि काव्यम् । -का०लं. का० द०-१७